रेगिस्तानी जीव


रेगिस्तानी जीव

विशाल शुष्क रेगिस्तान किसी भी प्रकार से आबाद होने का अहसास नहीं कराते, किन्तु फिर भी यहां अनेक प्रकार की वनस्पति तथा विभिन्न जीव-जन्तु जैसे कीट, सरीसृप, स्तनधारी तथा मछलियां जीवित रहती हैं। - चिल्ड्रन्स इलस्ट्रेटेड एनसाइक्लोपीडिया, डोर्लिंग किंडरस्ले लि. लंदन, 1998

रेगिस्तान में जीवन अत्यंत कठोर है। यहां जल तथा आहार का आभाव और उच्च तापमान जीवन को और भी जटिल बना देता है। लेकिन इतनी विषम परिस्थिति के बावजूद यहां जीवों की अनेक प्रजातियां जीवित रहती हैं। रेगिस्तान में जीवन की उत्तरजीविता का कारण रेगिस्तानी जीवों का यहां के वातावरण के अनुसार सुरक्षात्मक क्रियाविधियां विकसित कर लेना है। प्रायः दिन के समय रेगिस्तान निर्जन स्थल लगता है लेकिन दिन ढलते ही रात के अंधेरे में यहां विभिन्न जीव अपने-अपने सुरक्षित आवास स्थलों से बाहर निकल कर मरुभूमि को जीवन्त स्थान बना देते हैं। कुछ जीवों (विशेषकर स्तनधारी और सरीसृप) को सान्ध्य जीव भी कहते हैं जो केवल भोर के समय और अंधेरे में ही सक्रिय होते हैं।
            अनेक रेगिस्तानी जन्तु (कीट आदि) छोटे होते हैं जो धरती में बिल बना कर अथवा पेड़-पौधों की पत्तियों में छिप जाते हैं लेकिन रात्रि होने पर बाहर आकर अपने आहार की व्यवस्था करते हैं। यहां तक कि बड़े-बडे़ पशु, जैसे कंगारू, खरगोश, लोमड़ी, बेडगर (रीछ के समान एक चैपाया) कोयोट (भेडि़या के प्रकार के पशु) तथा स्कंक (गिलहरी के आकार का एक मांसाहारी पशु), अंखफोड़वा, झींगुर आदि अनेक सरीसृप जैसे गिरगिट, छिपकली, सर्प तथा विभिन्न पक्षियों जैसे उल्लू, कैलिफोर्निया थ्रेशर, भी धरती के अन्दर बिल, खोह बनाकर रहते हैं।

रेगिस्तान कीट
            हममें से अधिकतर के लिए रेगिस्तानी जीवों से आशय केवल ऊंट, सर्प, छिपकली आदि हैं। समान्यतया जब हम रेगिस्तान में रहने वाले जीवों के बारे में सोचते हैं तब अधिकतर हम कीटों के बारे में विचार नहीं करते हैं। लेकिन कीट भी अनेक उन जीवों में शामिल हैं जिन्होंने रेगिस्तान को अपना निवास स्थान बनाया है। रेगिस्तान में बसने वाले जीवों की श्रेणी में कीट अच्छी-खासी संख्या में हैं। कीटों ने अन्य जन्तुओं की तुलना में अपने आप को समुचित रूप से रेगिस्तान की परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लिया है। उनकी शरीर रचना भी उन्हें अनुकूलित बनाती हुई, उन्हें संरक्षण प्रदान करती है। बाहरी सतह चिकनी, जल निरोधक तथा कठोर होती है, जो जल हानि को रोकने के साथ शरीर की रक्षा करती है, उसे क्यूटिकल यानी उपत्वचा कहते हैं। रेगिस्तान के कीटों को निम्नांकित दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है:
1. वह कीट जो उड़नें में कुशल हैं।
2. वह कीट जो बहुत कम अथवा बिल्कुल नहीं उड़ पाते हैं।

अच्छे उड़ाकू कीट सूखे की दीर्घ अवधि में कहीं ओर चले जाने और वर्षा होने पर वापस लौट आने का गुण दर्शाते हैं। रेगिस्तान के टिड्डे (सिस्टोसरका ग्रेगेरिया) तो मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका स्थित सुदूर के क्षेत्रों में उड़ के पहुंच जाते हैं। कुछ कीट पौधों के पराग या तनों से निकले द्रव पर निर्भर रहते हैं जबकि अन्य पौधों के पानीदार हिस्सों जैसे पत्तियों, फलों को खाते हैं। रेगिस्तान में कीटों की प्रचुरता के कारण पक्षियों, छिपकली और चमगादड़ की अच्छी-खासी संख्या पाई जाती है।
            रेगिस्तान में तिलचट्टे बहुतायत में मिलते हैं और ये कुछ विस्मयकारी अनुकूलन दर्शाता है। उदाहरण के लिए नामीबा के तिलचट्टे का पिछला हिस्सा उभर लिए होता है और प्रत्येक उभार का शीर्ष सपाट और जल को आकृर्षित करने वाला होता है। प्रत्येक उभार की ढलान और शीर्ष के बीच का हिस्सा मोम से ढका रहता है जो जल को प्रतिकृर्षित करता है। सुबह के समय कोहरा होने पर ओस जल की बूंद के रूप में उभार के शीर्ष पर जमा हो जाता है। जब बूंद भारी और बड़ी हो जाती है तब यह शीर्ष से नीचे गिरते हुई सीधे इसके मुंह में जाती है। जल संग्रहण की इस प्राकृतिक व्यवस्था को जानकर वैज्ञानिकों ने शुष्क क्षेत्रों में कृषि और पेयजल की आपूर्ति के लिए लगभग नगण्य खर्च वाली छत जल संग्रहण विधि के प्रदर्श पर विचार किया है।
            रेगिस्तान में चींटियों के कम से कम तीन ऐसे वर्ग पाए गए हैं जो दिन के उच्च तापमान में भी सक्रिय रहते हैं। इनमें उत्तर अफ्रीका की केटाग्यफिश, दक्षिणी अफ्रीका की मेलोफोरस और आस्ट्रेलिया की मेलोकोहोरस है। केटेग्यफिश चीटियां सहारा रेगिस्तान में मिलती हैं, जो 70 डिग्री सेल्सियस तापमान वाली सतह, जिसमें अन्य कीट भुन सकते हैं, में भी अपने शरीर का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस कर जीवन यापन करती हैं।

रेगिस्तानी लूताभ (अरैक्नॉइड)

            रेगिस्तान में लूताभ कहलाने वाले अकशेरुकी जीवों के विभिन्न समूह पाए जाते हैं। लूताभ समूह में मकड़ी और बिच्छू की तरह के जीव शामिल हैं, जो अन्य जीवों का शिकार कर उनके शरीरिक द्रव्य से पानी की पूर्ति करते हैं।




रेगिस्तानी मछली
            मछली को जीवित रहने के लिए पानी की आवश्यकता होती है। इसीलिए रेगिस्तान में मछलियों को जिंदा रहना आश्चर्यजनक लगता है। पृथ्वी के सबसे गर्म स्थानों में से एक डेथ वेली में मछलीयां पाई जाती हैं। इस रेगिस्तान में छोटे लवणीय या खारे स्रोतों में पुप (केपरीन्डोन स्पे) मछली की कुछ प्रजातियां मिलती हैं। रेगिस्तानी मछलियों ने तापमान में वृहद भिन्नता और जल में खनिजों की अधिक मात्रा एवं ऑक्सीजन की कमी के प्रति अपने आप को अनुकूलित कर लिया है।

रेगिस्तानी उभयचर
रेगिस्तान में पाए जाने वाले मेढक, जब तक ग्रीष्म ऋतु के बाद हुई बारिश से भूमि सतह के गड्ढे पानी से न भर जाएं, तब तक जमीन की गहराई में रहते हैं। वर्षा के बाद यानी अनुकूल परिस्थितियों में मेढक बाहर निकल कर अपनी जैविक गतिविधियों को आरंभ कर अंडे देने के साथ फिर अपने शरीर में लंबे समय के लिए पानी और भोजन का भंडारण कर लेते हैं। उदाहरण के लिए कैलिफोर्निया का लाल धब्बेदार मेढक (ब्रुको पंचट्टुस) अपने मूत्राशय में जल को भंडारित कर लगभग दस महीनों तक भूमि सतह से नीचे रह सकता है। शुष्क मौसम के कारण रेगिस्तानी जीवों की निष्क्रियता को ग्रीष्मनिष्क्रियता कहते हैं। स्प्रेडफुट मेढक जैसे रेगिस्तानी उभयचर जीव नम भूमि में एक मीटर नीचे जाकर वहां लगातार नौ महीनों तक रह सकते हैं। ग्रीष्मनिष्क्रियता के समय इन जीवों में उपापचयी क्रियाओं की दर कम हो जाती है। इन जीवों की त्वचा के कठोर और चीमड़ होने से इनके शरीर से जल हानि कम होती है। जब वर्षा होती है तब ये जीव शीघ्र प्रणयरत होकर अंडे देते हैं। रेगिस्तान के उभयचर जीव अपने जीवन चक्र के दौरान लार्वा अवस्था से गुजरते हैं जिससे जल के वाष्पित होने से पहले यह परिपक्व हो जाते हैं। इस जल वर्षा के बाद जल के वाष्पित होने से पूर्ण अस्थलीय उभयचर जीव अपना जीवन चक्र पूरा कर लेते हैं।
            जल महत्वपूर्ण है क्योंकि उभयचर जल में अपने अंडे देते हैं और इनके जीवन का अधिकतर हिस्सा जलीय लार्वा अवस्था के रूप में गुजरता है। रेगिस्तान में अधिकतर उभयचर जीवन की इस अवस्था में जल की कमी के संकट से गुजरते हैं। इनकी अधिकतर जनसंख्या अलग-थलग रहकर एक ही जल स्रोत पर निर्भर करती है। इन जल स्रोत में मानव द्वारा या जलवायु में आए बदलाव से परिवर्तन हो सकता है।

रेगिस्तानी सरीसृप
रेगिस्तान में अनेक प्रकार के सरीसृप जैसे गिरगिट, छिपकली, सर्प, कछुए आदि पाए जाते हैं। मोटी त्वचा रखने के कारण इनके शरीर से जल हानि कम होती है। इसलिए यह नर्म त्वचा वाले उभयचरों में बेहतर स्थान रखते हैं। सरीसृप बाहरी ऊष्मा स्रोतो द्वारा अपने शरीर के तापमान को व्यवस्थित कर सकते हैं। इसलिए इन्हें असमतापी प्राणी भी कहा जाता है। इनके लिए रेगिस्तान में सूर्य का प्रकाश और उच्च औसत तापमान उपयुक्त होता है। इनके लिए ठंडी जलवायु की अपेक्षा दिन का लंबा समय और गर्म रेगिस्तान का उच्च तापमान अधिक अनुकूल है।
            जब सुबह ठंडी और सुस्त छिपकली या सांप बिल से बाहर निकलता हैं तब यह तत्काल सूर्य के विकिरणों की अधिक मात्रा को सोखती है। एक बार जब इनके शरीर का ताप अधिकतम हो जाता है तब ये जीव इस ताप को बढ़ने से रोकने के लिए विभिन्न व्यवहारात्मक तकनीकें अपनाते हैं। एक तरीके से यह पीछे मुड़कर सूर्य के प्रकाश और छाया क्षेत्रों में गति करते हुए अपने शरीर का तापमान संतुलित रखते हैं। एक अन्य तकनीक के अनुसार यह अपने शरीर की ऊष्मा का स्थानांतरण ठंडे स्थलों जैसे चट्टानों के नीचे या थिथिल रेत को एक तरफ हटाकर अपने पेट को इससे अधिकतम संपर्क में रखकर करते हैं।
            अधिकतर सर्प रात्रिचर होते हैं जो रात में ही बिल से बाहर आना पसंद करते हैं। इस प्रकार ये ऊष्मा से बचते हैं। सरीसृप शरीर से चपापचयी अपशिष्ट यूरिक अम्ल, जो अविलेय सफेद यौगिक होता है, के रूप में बाहर निकालते हैं और इस प्रक्रिया के लिए बहुत कम पानी आवश्यक होता है। शृंगी (हार्नडे) छिपकली उसकी चपापचयी उष्ण क्रियाओं को दिल की धड़कन और चपापचय क्रियाओं की दर में परिवर्तन कर बदल सकती है। कुछ सर्प एकतरफा घिसटते हुए चलते हैं जिससे वह रेत में भी आराम से गति कर सकें।

रेगिस्तानी पक्षी
रेगिस्तान में विविध प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। रेगिस्तान में पक्षियों की उपस्थिति उनके बिखरे हुए पंखों के कारण पता लगती हैं। सामान्य परिस्थितियों में उभयचरों और सरीसृपों से असमान गुण प्रदर्शित करते हुए पक्षी और स्तनधारी, अपने शरीर को एक नियत ताप पर स्थिर बनाए रखते हैं। इसलिए इन्हें समतापी जीव भी कहा जाता है। अधिकतर पक्षी सुबह व शाम के समय ही सक्रिय होते हैं। वह दिन के समय छाया वाले स्थानों पर रहते हैं। इस तरह वह दिन के अधिकतर समय में ताप से बचे रहते हैं। रेगिस्तानी पक्षियों में कोआ, कठफोड़वा, बतासी (स्विफ्ट), राजहंस, व्रेनर्स, थे्रशहर्स, रोड रनर, किंगबर्ड, टेनेगरर्स, क्वेल, उल्लू, रात्रिचर बाज प्रमुख हैं। कुछ पक्षी रेगिस्तान में लंबे समय तक रहते हैं तो कुछ विशेष मौसम में ही यहां आते हैं। पक्षी विषम मौसम जैसे उच्च तापमान व ठंड और सूखे की स्थिति के अलावा रेगिस्तान का उपयोग केवल प्रजनन के लिए करते हैं। पक्षी ठंडी जलवायु से बचने के लिए विशेष कार्यप्रणाली अपनाते हैं। कैक्टस वार्न पक्षी छाया में शांती से बैठा रहता है जबकि पेथरिटी बाज उत्तरी दिशा में खड़ी चट्टान की तरह घोंसला बनाकर गर्मी से बचाव करता है।
            रेगिस्तान के अधिकतर पक्षी अन्य स्थानों के अपने सजातीय पक्षियों से हल्का रंग लिए होते हैं। इनके पंखों (अन्य जीवों में, त्वचा, रेशे, ढांचा) का रंग हल्का होता है। पक्षियों का हल्का रंग न केवल वातावरण से कम गर्मी अवशोषित करता है बल्कि उनके आस-पास के चमकीले घेरे में उन्हें अन्य जीवों से भी बचाता है। रंगों के मामलों में काला गिद्ध और टर्की पक्षी जरा भिन्न हैं, इनका गहरा रंग रेगिस्तान में अधिक ऊष्मा अवशोषित करता हैं। ये पक्षी अपने पैरों पर पेशाब कर उन्हें वाष्पन द्वारा ठंडा रखते हैं। इस प्रकार से ये पक्षी अपने शरीर में ठंडे रक्त का परिसंचरण करते हैं। इन पक्षियों का यह व्यवहार यूरोहाइड्रोसिस क्हलाता है। ऐसा ही व्यवहार अफ्रीका रेगिस्तान के स्ट्रॉक पक्षी द्वारा भी दिखाया जाता है। गिद्ध और स्ट्रॉक पक्षी रेगिस्तान की दोपहरी में अधिक गर्मी से ऊंचाई पर चलती ठंडी हवाओं से बचते हैं। ये अपने पैरों की ओर जाने वाली रक्त शिराओं को फैला कर शरीर की अतिरिक्त गर्मी को बाहर निकाल देते हैं। जब पक्षी गर्मी का अनुभव करते हैं तब ये पक्षी गले के समीप की ढीली त्वचा पर पंख फड़फड़ाते हैं, इस प्रक्रिया को गलर फड़फड़ाना कहते हैं। यह प्रक्रिया कुत्तों के हांफने की क्रिया जैसी ही होती है, जिसके द्वारा कुत्ता शरीर की गर्मी को बाहर निकालता है।

रेगिस्तानी स्तनधारी
            नामीब और कालाहारी रेगिस्तान में शेर और गीदड़ को छोड़कर समान्यतया अन्य रेगिस्तानों में कोई बड़े शिकारी पशु नहीं रहते हैं। अन्य रेगिस्तानी जीवों में हाथी, जिराफ, ऊंट, गधा, बकरी, कंगारू चूहा, जैर्बिल (हिरणमूसा), जैरबोआ, अरबी आरिक्स, कुरंग (गजेल), किट लोमड़ी, मुल्गरा और मीरकेटस् शामिल हैं। रेगिस्तान में रहने वाले सभी स्तनधारी जीवों ने अपने को वहां की परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लिया है। प्रायः छोटे स्तनधारी जीव गर्मी से बचने के लिए दिन के अधिकतर समय जमीन के नीचे बिल बनाकर रहते हैं। रात के ठंडे मौसम में यह जीव बाहर निकल आते हैं। कुछ प्रजातियां दिन में केवल बहुत कम समय के लिए बिल से बाहर निकलती हैं।
बड़े आकार वाले स्तनधारी जमीन के नीचे नहीं छुप सकते हैं, लेकिन इनके बाल त्वचा के नीचे के ऊतकों को ठंडा रखते हैं। शायद बालों की इसी उपयोगिता के कारण स्तनधारी जीवों की ऊपरी त्वचा पर बालों की पर्त विकसित हुई है। इन जीवों की ऊपरी त्वचा का हल्का रंग ऊष्मा के कुछ भाग को परावर्तित करने में सहायक होता है।
            जैर्बिल और जैरबोआ की कुछ प्रजातियां तपती भूमि से कम संपर्क रखने के लिए कूदते रहते हैं। ये जीव अपनी पिछली बड़ी टांगों के कारण कूदने में समर्थ होते हैं। इन जीवों के अगले पैर छोटे और मजबूत होते हैं जो भूमि की खुदाई करने में सक्षम होते हैं। अनेक रेगिस्तानी जीवों के चैड़े खुर या पैर उनके रेत पर चलने में सहायक होते हैं। कुछ रेगिस्तानी कृंतक (रोडेंट) यानी कुतरने वाले जीवों (उदाहरण के लिए उत्तरी अमेरिका का कंगारू रेट और अफ्रीकन गै्रर्बिल) में बड़े कान छोटे-छोटे फर युक्त होते हैं। इनकी खुली त्वचा वातावरण में ऊष्मा को मुक्त करने में सहायक होती है। इस प्रकार इन जीवों को बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। जैकरेबिट जब ठंडे और छायादार क्षेत्रों पर आराम करते हुए जैकरेबिट के बडे़ कान बहुत सारी रक्त शिराओं द्वारा ऊष्मा मुक्त करते हैं। हालांकि ठंडे स्थानों में पाई जानी वाले इस जीव के समान प्रजातियों में कान छोटे होते हैं। कुछ जीव भोजन और पानी की कमी होने पर ग्रीष्मनिष्क्रियता की अवस्था में चले जाते हैं।
अफ्रीका तथा मध्य एशिया में पाए जाने वाले आरिक्स (हिरण) और एडेक्स जीव, बहुत ही शुष्क मौसम में भी पौधों के जैविक पदार्थ से जल प्राप्त करने का गुण रखते हैं। सामान्यतया ऐसे शुष्क क्षेत्रों में वहां के जीव जल की आपूर्ति पौधों की गूदेदार पत्तियों को खाने से या फिर पत्तियों पर जमी ओस की बूंदों से करते हैं। कुछ छोटे जीव जैसे मंगोलियाई चूहा और जैरबोआ कभी पानी नहीं पीते हैं। यह आरिक्स और एडेक्स की भांति अपने भोजन यानि वनस्पतियों के जैविक पदार्थों से जल प्राप्त करते हैं।
            शिकारी जीव जैसे फेनेस बिल्ली और अन्य रेगिस्तानी बिल्लियां अपनी जल आवश्यकता की आपूर्ति अपने शिकार के जैविक द्रव्य से ही करती हैं।
कंगारू चूहा भूमिगत सुरंग में रहकर दोपहर की गर्मी से बचने के साथ ही अपनी श्वसन क्रिया की नमी को भी पुनर्चक्रित करता है। इसके द्वारा श्वसन के समय निकाली गई नमी की अधिकतर मात्रा इसके नथुनों की विशिष्ट बनावट से पुनः प्राप्त कर ली जाती है। इस जीव के शरीर में विशेष प्रकार का यकृत अतिरिक्त सूक्ष्म नलिकाओं द्वारा अपनी पेशाब और रक्त से जल की अधिक मात्रा को वापिस उपयोग कर लेता है। वास्तव में कंगारू चूहा और अन्य कृंतक चपापचय क्रियाओं के लिए जल की आपूर्ति बीजों के पाचन से पूरा करते हैं। इस विशिष्ट रेगिस्तानी स्तनधारी जीव की एक अद्भुत बात यह है कि इसे कैद कर लिया जाए तो यह पानी नहीं पीता है।

ऊंट में अनुकूलन
            रेगिस्तानी स्तनधारी जीवों में ऊंट का उल्लेख विशेष रूप से किया जाता है। मुख्यतः ऊंट दो प्रकार के होते हैं। पहले डॉमडरि (एकककुद) या एक कूबड़ वाले अरब ऊंट (केमुलस डार्मेटरीस) और दूसरे दो कूबड़ वाले बैक्टीरियन ऊंट (केमल्स बेक्टीरीयस)। विश्व के लगभग 90 प्रतिशत ऊंट डॉमडरि है।
            रेगिस्तान में रहने के लिए अन्य दूसरे जीवों की भांति ऊंट ने भी शारीरिक अनकूलनों के द्वारा अपने को यहां के अनुसार ढाल लिया है। ऊंट का शरीर 30 प्रतिशत पानी की कमी वाली स्थिति के प्रति भी सहनशील है। इस स्थिति में अन्य स्तनधारी जीव असहज महसूस करते हैं। कुछ स्तनधारी जीव तो शरीर में मात्रा 15 प्रतिशत पानी की कमी से दम तोड़ देते हैं। एक प्यासा ऊंट एक बार में 50 लीटर से अधिक पानी पी सकता है। अकसर रेगिस्तान में कई प्यासे ऊंटों के इकट्ठा होने पर जल के स्रोत में खलबली मच जाती है। यदि जल पीने पर कोई पाबंदी न हो तब ऊंट अन्य जीवों की तुलना में अधिक पानी पीना पसंद करता है। यदि उसके सामने पानी है तो वह दिन के प्रत्येक सेकेंड में पानी पीता रहे।
ऊंट अपनी कूबड़ के लिए भी जाना जाता है। जैसा कि माना जाता है कि ऊंट कूबड़ में पानी भंडारित करता है, यह पूर्णतः असत्य है। उसका कूबड़ वसा ऊतकों को भंडारित करता है, जिससे चपापचय क्रिया के सहउत्पाद के रूप में पानी निकलता है।
ऊंट अपने शरीर के बढ़ते तापमान के प्रति भी अनुकूलन दर्शाता है। ऊंट का शारीरिक तापमान एक दिन में बहुत परिवर्तित हो सकता है। ऊंट पूरे दिन के दौरान अपने शरीर के तापमान को 34 डिग्री सेल्सियस से लेकर 41.7 डिग्री सेल्सियस तक समंजित कर सकता है। ऊंट आंतरिक तापमान को बढ़ाकर पसीने की मात्रा कम कर जल हानि को कम कर सकता है।
            ऊंट की सख्त जीभ इसे कंटीले पौधे खाने में मदद करती है। इसकी अत्यधिक लचीली जीभ और मुंह की अंतरिम सख्त त्वचा इसे कंटीली झाडि़यों को चरने में मदद करती है। ऊंट रेगिस्तानी क्षेत्र में उगने वाली ऐसी वनस्पतियों को भी खा लेते हैं जो अन्य जीवों के लिए अनुपयोगी हैं यानी अन्य जीव इन वनस्पतियों को नहीं खाते हैं। केमल थोर्न, एकेशिया और लवणी झाडि़यों आदि रेगिस्तानी क्षेत्र में पाई जाने वाली ऐसी ही कुछ वनस्पतियां हैं जिन्हें ऊंट के अलावा अन्य जानवर नहीं खाते हैं। इस प्रकार ऊंट का अन्य जीवों के लिए अनुपयोगी वनस्पतियों को खाना उसे एक और विशिष्टता प्रदान करता है।
            ऊंट की पलकों की दो पंक्तियां इसकी आंखों को रेत और धूल से बचाती हैं। ऊंट की पलकें, आंखों के लिए पर्दे की तरह व्यवहार करती हैं जो इसकी आंखों को रेत और सूर्य की किरणों से बचाती हैं। भारी और सुरक्षात्मक पलकों के अलावा ऊंटों के कान और घुटने बाल युक्त आवरण वाले होते हैं। ऊंट की नाक भी अद्भुत है। ऊंट के द्वारा सांस लेने पर नथुने की झिल्ली हवा में उपस्थित नमी को सोख लेती है। इस झिल्ली में सूक्ष्म रक्त शिराएं होती हैं, जो सोखी गई नमी को ऊंट के रक्त में पहुंचा देती हैं। इसके अलावा ऊंट की नाक में विशिष्ट मांसपेशियां होती हैं जो रेत को अंदर जाने से रोकती है।
            ऊंट लंबे व विशिष्ट पैरों के कारण रेगिस्तान में आसानी से चल सकता है। इसके विशिष्ट पंजे रेत में खपते नहीं हैं। रेतीली आंधी के समय ऊंट पैरों को घुटनों के बल मोड़कर बैठने के साथ कानों को दबाकर तथा आंखों को व नथुनों को बंद कर रेतीले तूफान से बचता है।
            जब हम रेगिस्तानी व्यापार मार्गें का अवलोकन करते हैं तो हमें ऊंट की महत्ता का पता लगता है। रेगिस्तान में ऊंट बोझ ढोने के साथ यहां की विषम परिस्थितियों के प्रति अत्यंत सहनशील जीव हैं। प्राकृतिक भूगोल संबंधी विशिष्ट शारीरिक अनुकूलताओं के गुण के कारण रेगिस्तानी क्षेत्र ऊंट का आवास स्थल बना हुआ है।

Author:  सुबोध महंती
Source:  विज्ञान प्रसार


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