राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य
प्राचीन ग्रंथों में राजप्रासाद वास्तु का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। राजस्थान को इतिहास में ‘राजाओं के प्रदेश’ के नाम से भी जाना गया है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि राजा अपने रहने के विस्तृत आवास बनाते। दुर्भाग्य से अब राजस्थान के प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल की संधिकाल के राजप्रासादों के खण्डहर ही शेष रहे हैं। मेनाल, नागदा आदि स्थान के राजप्रासादों के खण्डहर यह बताते
हैं कि वे सादगी युक्त थे। इनमें संकरे दरवाजे एवं खिड़कियों का अभाव है, जो सुरक्षा के कारणों से रखे गये हैं।
मध्यकाल में राजप्रासाद विशाल, भव्य एवं अलंकृत बनने लगे। पूर्व मध्यकाल में अधिकांश राजप्रासाद किलों में ही देखने को मिलते हैं। इन राजप्रासादों में राजा एवं उसके परिवार के अतिरिक्त
उसके बन्धु-बान्धव तथा अतिविशिष्ट नौकरशाही रहा करती थी। इस युग में भी कई वास्तुविद् हुए जिनमें मण्डन, नापा, भाणा, विद्याधर आदि प्रमुख हैं। कुम्भायुगीन प्रख्यात शिल्पी मण्डन का विचार है कि राजभवन नगर के मध्य में अथवा नगर के एक तरफ किसी ऊँचे स्थान पर बनाना चाहिये। उसने जनाना एवं मर्दाना महलों को सुगम मार्गों से जोड़े जाने की व्यवस्था सुझाई है। उसने अन्य महलों को भी एक-दूसरे से जोड़ने तथा सभी को एक इकाई का रूप देने पर बल दिया है। कुम्भाकालीन राजप्रासादा सादे थे किन्तु बाद के काल में महलों की बनावट एवं शिल्प में परिवर्तन दिखाई देता है। 15वीं शताब्दी के पश्चात् महलों में मुगल प्रभाव देखा जा सकता है। अब इन महलों में तड़क-भड़क देखी जा सकती है। फव्वारे, छोटे बाग-बगीचे, बेल-बूँटे, संगमरमर का प्रयोग, मेहराब, गुम्बज आदि रूपों में मुगल प्रभाव को इन इमारतों में देखा जा सकता है। उदयपुर के महलों में अमरसिंह के महल कर्णसिंह का जगमन्दिर, जगतसिंह द्वितीय के समय के प्रीतम निवास महल, जगनिवास महल, आमेर के दीवाने आम, दीवाने खास, बीकानेर के कर्णमहल, शीशमहल, अनूप महल, रंगमहल, जोधपुर का फूल महल आदि पर मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सत्रहवी शताब्दी के बाद कोटा, बूँदी, जयपुर आदि में निर्मित महलों में स्पष्टतः मुगल प्रभाव दिखाई देता है। मुगल प्रभाव के कारण राजप्रासादों में दीवाने आम, दीवाने खास, चित्रशालाएँ, बारहदरियाँ, गवाक्ष - झरोखे, रंग महल आदि को स्थान मिलने लगा। इस प्रकार के महलों में जयपुर का सिटी पैलेस, उदयपुर का सिटी पैलेस प्रमुख है। राजस्थान के महलों में डीग के महलों का विशिष्ट स्थान है। डीग के महल जाट नरेश सूरजमल द्वारा निर्मित है। डीग के महलों के चारों ओर छज्जे (कार्निस) हैं, जो प्रभावोत्पादक है। डीग के महलों एवं इनमें बने उद्यानों का संयोजन विशेष कौशल का परिचय कराता है। यह जल महल के नाम से भी प्रख्यात है। डीग के महलों में गोपाल भवन विशेष है।
हवेली स्थापत्य
राजस्थान में बड़े-बड़े सेठ साहूकारों तथा धनी व्यक्तियों ने अपने निवास के लिये विशाल हवेलियों का निर्माण करवाया। ये हवेलियाँ कई मंजिला होती थी। शेखावाटी, ढूँढाड़, मारवाड़ तथा मेवाड़ क्षेत्रों की
हवेलियाँ स्थापत्य की दृष्टि से भिन्नता लिए हुये हैं। शेखावाटी क्षेत्र की हवेलियाँ अधिक भव्य एवं कलात्मक है। जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, तथा शेखावाटी के रामगढ़, नवलगढ़, फतहपुर, मुकु ंदगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदार शहर, रतनगढ़ आदि कस्बों में खड़ी विशाल हवेलियाँ आज भी अपने स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। राजस्थान की हवेलियाँ अपने छज्जों, बरामदों और झरोखें पर बारीक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं।
जैसलमेर की हवेलियाँ राजपूताना के आकर्षण का केन्द्र रही है। यहाँ की पटवों की हवेली अपनी शिल्पकला, विशालता एवं अद्भुत नक्काशी के कारण प्रसिद्ध है। यह सेठ गुमानचन्द बापना ने बनवाई थी। यह पाँच मंजिला हवेली शहर के मध्य स्थित है। इस हवेली के जाली-झरोखें बरबस ही पर्यटक को आकर्षित करते हैं। पटवों की हवेली के अतिरिक्त जैसलमेर, में स्थित सालिमसिंह की हवेली का शिल्प-सौन्दर्य भी बेजोड़ है। इस नौ खण्डी हवेली के प्रथम सात खण्ड पत्थर के और ऊपरी दो खण्ड लकड़ी के बने हुये थे। बाद में लकड़ी के दोनों खण्ड उतार लिये गये। जैसलमेर की नथमल की हवेली भी शिल्पकला की दृष्टि से अपना अनूठा स्थान रखती है। इस हवेली का शिल्पकारी का कार्य हाथी और लालू नामक दो भाइयों ने इस संकल्प के साथ शुरू किया था कि वे हवेली में प्रयुक्त शिल्प को दोहरायेंगे नहीं, इसी कारण इसका शिल्प अनूठा है।
बीकानेर की प्रसिद्ध ‘बच्छावतों की हवेली’ का निर्माण सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कर्णसिंह बच्छावत ने करवाया था। इसके अतिरिक्त बीकानेर में मोहता, मूंदड़ा, रामपुरिया आदि की हवेलियाँ अपने
शिल्प वैभव के कारण विख्यात है। बीकानेर की हवेलियाँ लाल पत्थर से निर्मित है। इन हवेलियों में ज्यॉमितीय शैली की नक्काशी है एवं आधार को तराश कर बेल-बूटे, फूल-पत्तियाँ आदि उकेरे गये हैं।
इनकी सजावट में मुगल, किशनगढ़ एवं यूरोपीय चित्रशैली का प्रयोग किया गया है।
शेखावाटी की हवेलियाँ अपने भित्तिचित्रों के लिए विख्यात है। शेखावाटी की स्वर्णनगरी के रूप में विख्यात नवलगढ़ (झुंझुनू) में सौ से ज्यादा हवेलियाँ अपनी शिल्प आभा बिखेरे हुये है। यहाँ की हवेलियों में रूप निवास, भगत, जालान, पोद्दार और भगेरियाँ की हवेलियाँ प्रसिद्ध हैं। बिसाऊ (झुंझुनूं) में नाथूराम पोद्दार की हवेली, सेठ जयदयाल केठिया की तथा सीताराम सिंगतिया की हवेली प्रसिद्ध है। झुंझुनू में टीबड़ेवाला की हवेली तथा ईसरदास मोदी की हवेली अपने शिल्प वैभव के कारण अलग ही छवि लिए हुए हैं। डूंडलोद (झुंझुनूं) में सेठ लालचन्द गोयनका, मुकुन्दगढ़ (झुंझुनू) में सेठ राधाकृष्ण एवं केसरदेव कानेड़िया की हवेलियाँ, चिड़ावा (झुंझुनू) में बागड़िया की हवेली, महनसर (झुंझुनू) की सोने-चाँदी की हवेली, श्रीमाधोपुर (सीकर) में पंसारी की हवेली प्रसिद्ध है। झुंझुनूं जिले की ये ऊँची-ऊँची हवेलियाँ बलुआ पत्थर, ईंट, जिप्सम एवं चूना, काष्ठ तथा ढलवाँ धातु के समन्वय से निर्मित अपने अन्दर भित्ति चित्रों की छटा लिये हुए हैं।
सीकर में गौरीलाल बियाणी की हवेली, रामगढ़ (सीकर) में ताराचन्द रूइया की हवेली समकालीन भित्तिचित्रों के कारण प्रसिद्ध है। फतहपुर (सीकर) में नन्दलाल देवड़ा, कन्हैयालाल गोयनका की हवेलियाँ भी भित्तिचित्रों के कारण प्रसिद्ध है। चूरू की हवेलियों में मालजी का कमरा, रामनिवास गोयनका की हवेली, मंत्रियों की हवेली इत्यादि प्रसिद्ध है। खींचन (जोधपुर) में लाल पत्थरों की गोलेछा एवं टाटिया परिवारों की हवेलियाँ भी कलात्मक स्वरूप लिए हुए है।
जोधपुर में बड़े मियां की हवेली, पोकरण की हवेली, राखी हवेली, टोंक की सुनहरी कोठी, उदयपुर में बागौर की हवेली, जयपुर का हवामहल, नाटाणियों की हवेली, रत्नाकार पुण्डरीक की हवेली, पुरोहित
प्रतापनारायण जी की हवेली इत्यादि हवेली स्थापत्य के विभिन्न रूप हैं। राजस्थान में मध्यकाल के वैष्णव मंदिर भी हवेलियों जैसे ही बनाये गये हैं। इनमें नागौर का बंशीवाले का मंदिर, जोधपुर का रणछोड़जी का मंदिर, घनश्याम जी का मंदिर, जयपुर का कनक वृंदावन आदि प्रमुख हैं। देशी-विदेशी पर्यटकों को लुभानें तथा राजस्थानी स्थापत्य कला को संरक्षण देने के लिए वर्तमान में अनेक हवेलियों का जीर्णोद्धार किया जा रहा है।