मृदा संसाधन
‘मृदा‘ जिसे सामान्य रूप से मिट्टी कहा जाता है भूमि की ऊपरी सतह होती है, जो चट्टानो के टूटने-फूटने एवं विघटन से उत्पन्न सामग्री तथा उस पर पड़े जलवायु, वनस्पति एवं जैविक प्रभावो से विकसित होती है। यह एक अनवरत प्रक्रिया का प्रतिफल होती है। इस प्रक्रिया में अनेक भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते हैं तथा उसमें जीव अंष एवं वनस्पति के अंष सम्मिलित होकर उसे एक निष्चित स्वरूप प्रदान करते है जो कृषि एवं पौधो के लिये आधार होती है, अतः यह एक प्राकृतिक संसाधन है।
राजस्थान की अधिकांष मृदा जलोढ़ अर्थात् जल द्वारा बहा कर लाई गई मिट्टी एवं वातोढ़ अर्थात् वायु द्वारा जमा की गई मिट्टी है। अरावली की ढालो पर कंकड़ युक्त सतह है जबकि दक्षिणी-पूर्वी पठार के भाग में काली एवं लाल मृदा है। राजस्थान की मृदाओ का उनके उपजाऊपन, कृषि के लिये उपयुक्तता एवं अन्य विषेषताओ के आधार पर निम्नांकित प्रकारो में विभक्त किया जाता है-
1. जलोढ़ मृदा - पूर्वी राजस्थान में नदियो द्वारा जमा की गई मृदा है। इसका रंग कहीं लाल, कहीं भूरा है तथा उत्पादकता की दृष्टि से यह उत्तम है।
2. लाल और पीली मिट्टी - यह सवाई माधोपुर, भीलवाड़ा जिलो के पष्चिमी भाग में तथा अजमेर और सिरोही जिलो में पाई जाती है। इसमें लोह अंष की प्रधानता तथा कार्बो नेट की कमी होती है।
3. लाल-लोमी मृदा - यह मृदा उदयपुर जिले के मध्य और दक्षिणी भाग में और डूँगरपुर में मुख्यतः मिलती है। इसमें उत्पादकता सामान्य होती है।
4. लाल और काली मृदा - यह भीलवाड़ा, उदयपुर के पूर्वी भाग, चित्तोड़गढ़, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा जिलो में विस्तृत है। यह लाल मृदा मालवा की काली मिट्टी का विस्तार है। यह कपास, मक्का आदि के लिये उपयुक्त होती है।
5. मध्यम प्रकार की काली मृदा - यह हाड़ौती के पठार में विस्तृत है। यह गहरे भूरे रंग से काले रंग तक होती है। यह कपास, मूंगफली तथा दालो के लिये उपयुक्त होती है।
6. रेतीली मृदा - यह पष्चिमी राजस्थान के मरूस्थली प्रदेश में विस्तृत है। इसमें फॉस्फेट की मात्रा पर्याप्त होती है और पानी उपलब्ध होने पर अच्छी फसल देती है।
मृदा संरक्षण
मृदा किसी भी प्रदेश अथवा क्षेत्र के कृषि विकास का आधार है। सामान्यतया यह माना जाता है कि मृदा एक ऐसा संसाधन है जो कभी समाप्त नहीं होता और प्रकृति इसे संरक्षित करती रहती है। किन्तु वास्तविक सत्य इससे भिन्न है अर्थात् मृदा का निरन्तर विनाष होता रहा है। प्राकृतिक एवं मानवीय कारणो से मृदा नष्ट होती जा रही है जो एक ऐसा संकट है जिसका निराकरण यदि समय पर नहीं हुआ तो विनाष का कारण बन जायेगा। इसी कारण मृदा का संरक्षण आवष्यक है।
मृदा की सबसे बड़ी समस्या मृदा अपरदन है अर्थात् जल से, वायु से अथवा सामान्य प्रक्रिया से मृदा का कटान होता जाता है। राजस्थान के मरूस्थली क्षेत्रों में वायु अपरदन की समस्या है, तो चम्बल नदी के क्षेत्रों में जल अपरदन से हजारो हैक्टेयर भूमि ‘बीहड़‘ में बदल गई है। भूमि की लवणता एवं भूमि का जल प्लावित होना वर्तमान में नहरी सिंचित क्षेत्रोंकी प्रधान समस्या है। इसी प्रकार भूमि का उपजाऊपन कम हो जाना सम्पूर्ण राज्य की समस्या है। अतः भूमि का उचित संरक्षण अति आवष्यक है।
मृदा संरक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित है-
1. वनस्पति आवरण का विकास - मृदा के कटाव को रोकने के लिये भूमि को संगठित रखना आवष्यक है। इसका सबसे सार्थक उपाय वृक्षारोपण है क्योंकि वृक्षो की जड़े भूमि को संगठित रखती है और भूमि का कटाव नहीं होता। इसके लिये संरक्षी वृक्षारोपण किया जाना आवष्यक है। हरित पेटियो का विकास एक उपयुक्त कदम है।
2. पट्टीदार कृषि - विधि से फसलो को समोच्च रेखाओ पर पंक्तियो में इस प्रकार बोया जाता है कि प्रवाहित जल का वेग कम हो जाता है तथा प्रवाहित मृदा अपरदन रोधी पट्टिकाओ में जमा हो जाती है।
3. फसल चक्रीकरण - यदि एक प्रकार की फसल निरन्तर उगाई जायगी तो भूमि के अनेक रासायनिक एवं जैविक तत्व कम हो जाते है और भूमि की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती है। यदि फसलो को बदल-बदल कर बोया जायगा तो भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है।
4. पषुचारण पर नियंत्रण - अनियन्त्रित पषुचारण भूमि कटाव का प्रमुख कारण है इसे नियन्त्रित किया जाना आवष्यक है।
5. रासायनिक उर्वरकों का सीमित प्रयोग - निरंतर रासायनिक उर्वरको के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति कम होने लगती है। अतः रासायनिक उर्वरको के स्थान पर जैविक उर्वरको का प्रयोग उत्तम रहता है। उपर्यु क्त विधियो के अतिरिक्त बाढ़ नियंत्रण, स्थानान्तरण कृषि पर प्रतिबन्ध, अवनालिया नियंत्रण, उचित भूमि उपयोग तथा मृदा प्रबन्धन किया जाना आवष्यक है।