वन संसाधन
वन अथवा प्राकृतिक वनस्पति प्रकृति प्रदत्त सम्पदा है जो एक ओर मानव के अनेक उपयोग में आते हैं तो दूसरी ओर पर्यावरण के सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक होते हैं। वनोंसे अनेक प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ जैसे इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, लकड़ी का कोयला, प्लाइवुड, बांस, बेन्त, लुग्दी, शहद, सेल्योलाज, पषुओं का चारा, गोंद, रबर, लाख, कत्था, रेषेदार पदार्थ, अनेक प्रकार की औषधियां आदि तो प्राप्त होती है साथ में ये अनेक जीव-जन्तुओं एवं वनस्पति समूहों को प्रश्रय देकर उनकी अनेक प्रजातियो को नष्ट होने से बचाती है। राजस्थान की प्राकृतिक संरचना इस प्रकार की है कि यहाँ भारत के अन्य राज्यों की तुलना में वनों का विस्तार अपेक्षाकृत कम है। राजस्थान में वन क्षेत्र का विस्तार 32,627 वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र है जो राज्य के कुल क्षेत्र का 9.54 प्रतिशत है। यह प्रतिशत राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित 33.33 प्रतिशत से बहुत कम है। राज्य में वन क्षेत्रों के सीमित विस्तार का कारण यहाँ कम वर्षा होना, उच्च तापमान, मरूस्थली क्षेत्रों का अधिक विस्तार, अनियन्त्रित पषुचारण तथा मानव द्वारा किया जाने वाला वनोन्मूलन है। किन्तु इससे यह तात्पर्य नहीं कि यहाँ वनों का क्षेत्रकम हो रहा है। अपितु 15 वर्षो में यहाँ के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है। वर्ष 1990-91 में जहाँ राज्य में वन क्षेत्र का प्रतिशत 6.87 था वह वर्ष 2005-06 में 9.54 प्रतिशत हो गया।
प्रदेश में सर्वाधिक वन क्षेत्र करौली जिले में 38.89 प्रतिशत है। इसके पश्चात उदयपुर जिले में 36.66 प्रतिशत है। बांरा जिले में 32.07 प्रतिशत तथा सिरोही जिले में 31.89 प्रतिशत वन क्षेत्र है। राज्य में सबसे कम वन क्षेत्र चूरू जिले में मात्र 71 वर्ग किमी. अर्थात 0.42 प्रतिशत है, जैसलमेर जिले में 1.51 प्रतिशत, नागौर जिले में 1.36 प्रतिशत है। बाड़मेर, बीकानेर, जौधपुर, टोंक, गंगानगर, हनुमानगढ़ तथा जालौर जिले ऐसे हैं जहाँ वनों का क्षेत्र 5 प्रतिशत से कम है। प्रषासनिक दृष्टि से राज्य के वनों को तीन श्रेणियो में विभक्त किया गया है, ये हैं -
आरक्षित वन - जिन पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होता है।
सुरक्षित वन - इनमें लकड़ी काटने, पषुचारण की सीमित सुविधा दी जाती है तथा इनको संरक्षित रखने का भी प्रयत्न किया जाता है।
अवर्गीकृत वन - इनमें षेष वन सम्मिलित किये जाते है, जिन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता।
भौगोलिक दृष्टि से वनों की प्रकृति एवं उनमें उपलब्ध वनस्पति समूहों के आधार पर राजस्थान के वनों को निम्नलिखित तीन वृहत् श्रेणियो में विभक्त किया जाता है-
उष्ण कटिबंधीय कँटीले वन - इस प्रकार के वन पष्चिमी राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध-षुष्क प्रदेषो में है। इनमें काँटेदार वृक्ष एवं झाड़ियाँ प्रमुख होती है। इन वनों में खेजड़ा, रोहिड़ा, बेर, बबूल, कैर आदि के वृक्ष मिलते है। इनमें खेजड़ा एक बहु-उपयोगी वृक्ष है, जिसे राज्य वृक्ष का दर्जा दिया गया है।
उष्ण-कटिबंधीय शुष्क पतझड़ वाले वन - इस प्रकार के वन अरावली पर्वत श्रेणी के उत्तरी और पूर्वी ढालो पर विषेषकर विस्तृत है। इसके अतिरिक्त दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में भी इन वनों का विस्तार है। इन वनों में धोकड़ा, गूलर, आम, बरगद, पलाष, बांस, आंवला, ओक, थोर, कैर, सेमल आदि मिलते हैं। दक्षिणी राजस्थान में सागवान की उपयोगी लकड़ी इन्हीं वनों से प्राप्त होती है।
उप-उष्ण पर्वतीय वन - इस प्रकार के वन राजस्थान में केवल सिरोही जिले के आबू पर्वतीय क्षेत्र में है। इन वनों में सदाबहार एवं अर्द्ध-सदाबहार वनस्पति होती है। सामान्य रूप से राजस्थान में शुष्क सागवान वन, सालर वन, ढाक अथवा पलाष के वन, मरूस्थली वनस्पति,, शुष्क पतझड़ वन तथा मिश्रित वन मिलते है। गंगानगर हनुमानगढ़ जिलो में शीषम के वृक्ष भी पर्याप्त है।
वन संसाधनों का प्राकृतिक एवं आर्थिक महत्व
वन एक प्राकृतिक संसाधन है जिनका बहुमुखी उपयोग है। वन पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वनों का पर्यावरणीय महत्त्व निम्न तथ्यो से है -
प्राकृतिक सुंदरता में अभिवृद्धि करते हैं।
पर्यावरण को शुद्ध रखते हैं।
जलवायु को सम बनाते हैं, तापमान में वृद्धि रोकते हैं।
आर्द्र ता में वृद्धि कर वर्षा में सहायक है।
जलवायु परिवर्तन को रोकते है।
मिट्टी के कटान को रोकते है।
जैव-विविधता को संरक्षित रखते हैं।
वनों का आर्थिक महत्व भी अत्यधिक है। राज्य में वनों से लगभग 45 हजार व्यक्तियो को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रोजगार मिलता है। राजस्थान के वनों से जो मुख्य उपजें प्राप्त होती हैं वे हैं- इमारती लकड़ी (सागवान, धोकड़ा, सालर, शीषम, बबूल, आदि से), ईंधन हेतु लकड़ी और कोयला, तेंदू पत्ता (जिसका उपयोग बीड़ी बनाने में होता है), बाँस, गोंद, कत्था एवं लाख, घास, खस, महुआ एवं अनेक प्रकार की ओषधियो के स्त्रोत है। इसके अतिरिक्त वनों से आँवला, कैर, बैर, शहद, मोम, तेंदू तथा अनेक कन्दमूल प्राप्त होते है। वास्तव में वनों का उपयोग बहुमुखी है और प्राकृतिक संसाधनों में एक मूल्यवान संसाधन है।
वन संरक्षण की आवष्यकता
राजस्थान मं वनों की सीमित उपलब्धता एवं उनके तीव्र गति से हो रहे विनाष के कारण निम्नांकित समस्याओ का जन्म हो रहा है-
पारिस्थितिकी असंतुलन उत्पन्न होना
वायु मण्डल में नमी धारण करने की क्षमता में कमी
तापमान में वृद्धि
वर्षा में कमी
मृदा अपरदन में वृद्धि
बाढ़ प्रकोप में वृद्धि
भूमि उर्वरता में कमी
वन जीव-जन्तुओ की प्रजातियो का नष्ट होना
पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि
वनों से प्राप्त पदार्थो का उपलब्ध न होना, आदि उपर्यु क्त कारणो से वनों का राज्य में संरक्षण अति आवष्यक है।
वनों का संरक्षण एवं संवर्धन
वनों का संरक्षण अथवा उनका विकास और विस्तार वर्तमान की प्रमुख आवष्यकता है। इस दिषा में अनेक सरकारी प्रयत्न किये जा रहे है साथ में सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रयत्न करने की आवष्यकता है। वन संरक्षण हेतु कतिपय उपाय निम्नांकित है -
1. नियन्त्रित एवं उचित विधि से कटाई - वनोन्मूलन का प्रमुख कारण अनियन्त्रित कटाई है। वनों की कटाई इस प्रकार की जानी चाहिये जिससे वनों का विनाष भी न हो और लकड़ी आदि पदार्थ भी प्राप्त होते रहे। इसके लिये परिपक्व वृक्षो की कटाई, वृक्षो की शाखाओ की कटाई, के पश्चात वृद्धि के लिये छोड़ना तथा वनों का आनुपातिक विकास आवष्यक है।
2. वनों का आग से बचाव।
3. कृषि, आवास एवं अन्य विकास कार्यो हेतु वनों के विनाष पर रोक।
4. बांधों से वनों के जल मग्न होने से बचाव।
5. वनों का पर्यटन स्थलों के रूप में विकास।
6. वृक्षारोपण अर्थात् पुनः वन लगाना।
7. वनों में अनियंत्रित पषु चारण पर रोक।
8. वन संरक्षण में प्रषासन की सक्रीय भूमिका - प्रषासन द्वारा ही वन संरक्षण सम्भव है क्योंकि सरकारी विभागो को ही वन संरक्षण का उत्तरदायित्व सौ पा जाता है। प्रषासन वन संरक्षण में निम्न कार्य सम्पादित कर सकता है- वन सम्बन्धित कानूनो को लागू करना, वनों का सर्वे क्षण करना, वन विकास के क्षेत्रों का निर्धारण करना, वनों को आग से बचाना, वृक्षारोपण कार्यक्रम का सफल क्रिर्यान्वन करना, वन उत्पादनो पर सरकारी नियंत्रण, वन संरक्षण हेतु जागरूकता जागृत करना तथा प्रोत्साहन देना आदि।
9. सामाजिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा वन संरक्षण - वन संरक्षण में सामाजिक एवं स्वयं सेवी संस्थाओ द्वारा जन जागृत पैदा करना, वृक्षा रोपण तथा वृक्षो की उचित देखभाल करके वन संरक्षण में महती भूमिका निभा सकती है। सरकार द्वारा चलाये जा रहे ‘सामाजिक वानिकी‘ एवं ‘हरित राजस्थान‘ कार्यक्रमो को स्वयंसेवी संस्थाये सफल बना सकती है।
10. उचित वन प्रबन्धन - द्वारा वन संरक्षण एवं संवर्धन किया जा सकता है। इसके लिये आवष्यक है- वन सर्वेक्षण, वनों का वर्गीकरण, वनों का उचित आर्थिक उपयोग, वनों की प्रषासनिक व्यवस्था, पर्यटन हेतु वनों का उपयोग, सामाजिक वानिकी, वन अवबोध कार्यक्रम, वन अनुसन्धान तथा वन विकास हेतु मास्टर प्लान तैयार करना आदि।
उपर्यु क्त तथ्यो को दृष्टिगत रखते हुए राजस्थान में सरकार ने वनों के संरक्षण एवं विकास के लिये अनेक प्रयत्न किये है। इसक अन्तर्गत वनोन्मूलन पर रोक, वृक्षारोपण (जिसमें अरावली वृक्षारोपण कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण है), सामाजिक वानिकी का विस्तार, मरूस्थली क्षेत्रों में ‘काजरी‘ (षुष्क क्षेत्र अनुसंधान केन्द्र जो जौधपुर में स्थित है) की सहायता से उपयुक्त वृक्षो को लगाना, ग्राम्य वन सुरक्षा प्रबन्ध समितियो का गठन, वन विकास अभिकरणो का गठन, प्रकृति पर्यटन को प्रोहोत्सान तथा हाल ही में चलाये जा रहे ‘हरित राजस्थान‘ कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण हैं।