राजस्थान में लोकप्रशासन
राजस्थान भारतीय गणराज्य का एक राज्य है, जहाँ अन्य भारतीय राज्यों की तरह संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था है। सम्पूर्ण राज व्यवस्था संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका द्वारा संचालित की जाती है।राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था अथवा लोक प्रशासन का उद्देष्य राज्य के बहुमुखी विकास के साथ-साथ जनता के हितों की रक्षा करना तथा शांति एवं व्यवस्था हेतु कानून का शासन करना है। राजस्थान के लोक प्रशासन के अध्ययन से पूर्व राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया को समझना आवष्यक है।
राजस्थान का एकीकरण
स्वतन्त्रता से पूर्व राजस्थान विभिन्न छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था तथा इस राज्य का कोई संगठित स्वरूप नहीं था। यह 19 देषी रियासतों, 2 चीफषिप एवं एक ब्रिटिश शासित प्रदेश में विभक्त था। इसमें सबसे बड़ी रियासत जोधपुर थी, तथा सबसे छोटी लावा चीफषिप थी। प्रत्येक रियासत एक राजप्रमुख अर्थात् राजा, महाराजा अथवा महाराणा द्वारा शासित थी तथा प्रत्येक की अपनी राजव्यवस्था थी। अधिकांश रियासते में आपसी समन्वय एवं सामजंस्य का अभाव था। स्वतन्त्रता के पष्चात् यह आवष्यक था कि समस्त देषी रियासतों का एकीकरण किया जाए। राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया समस्त भारतीय एकीकरण का हिस्सा थी। इस कार्य को सम्पन्न करने में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अहम भूमिका निभाई और राजस्थान का एकीकरण एक चरणबद्ध रूप से किया गया। राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया 17 मार्च, 1948 ई. को प्रारम्भ हुई और 1 नवम्बर, 1956 ई. को पूर्ण हुई। एकीकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया सात चरणों में सम्पन्न हुई, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
प्रथम चरण- ‘मत्स्य संघ’ का निर्माण: 17 मार्च, 1948 को चार रियासतों अर्थात् अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली को मिलाकर एक संघ का निर्माण किया गया, जिसका नाम ‘मत्स्य संघ’ ‘मत्स्य संघ’ ‘मत्स्य संघ’ ‘मत्स्य संघ’ ‘मत्स्य संघ’ रखा गया। इस संघ का नामकरण के.एम.मुन्षी के सुझाव पर रखा गया था। मत्स्य संघ का राजप्रमुख धौलपुर के महाराजा को बनाया गया। राज्य में एकीकरण की दिशा में यह पहला कदम था।
द्वितीय चरण - ‘संयुक्त राजस्थान’ का गठन: राजस्थान के एकीकरण के द्वितीय चरण में 25 मार्च, 1948 को 9 रियासतों-बाँसवाड़ा, बूंदी, डूंगरपुर, झालावाड़, कोटा, किशनगढ़, प्रतापगढ़, शाहपुरा, और टोंक को मिलाकर ‘संयुक्त राजस्थान’ ‘संयुक्त राजस्थान’ ‘संयुक्त राजस्थान’ ‘संयुक्त राजस्थान’ ‘संयुक्त राजस्थान’ का निर्माण किया गया। इसकी राजधानी कोटा बनायी गयी।
तृतीय चरण-संयुक्त राजस्थान‘‘: 18 अप्रेल, 1948 को उदयपुर रियासत को पूर्व राजस्थान में सम्मिलित कर लिया गया। इसे ‘संयुक्त ‘संयुक्त ‘संयुक्त ‘संयुक्त ‘संयुक्त राजस्थान’ राजस्थान’ राजस्थान’ राजस्थान’ राजस्थान’ का नाम दिया गया। इस नये राज्य का नया विधान बनाया गया जिसमें उदयपुर को राजधानी तथा उदयपुर के महाराजा को राजप्रमुख बनाया गया।
चतुर्थ चरण - ‘वृहत राजस्थान’: राज्य एकीकरण के चतुर्थ चरण में 30 मार्च, 1949 को राज्य की चार बड़ी रियासतें-जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर का संयुक्त राजस्थान में विलय के पष्चात् ‘वृहत राजस्थान’ का गठन किया गया। इस वृहत्
राजस्थान का व्यापक चर्चा के पष्चात् एक विधान बनाया गया तथा इसकी राजधानी जयपुर बनाई गई। राज्य के एकीकरण में यह महत्वपूर्ण कदम था, इसी कारण बाद में 30 मार्च को प्रतिवर्ष ‘राजस्थान दिवस’ ‘राजस्थान दिवस’ ‘राजस्थान दिवस’ ‘राजस्थान दिवस’ ‘राजस्थान दिवस’ के रूप में स्वीकार किया गया। संयुक्त राजस्थान में राजप्रमुख, महाराज प्रमुख, उपराज प्रमुख पर क्रमषः जयपुर, उदयपुर कोटा के महाराजा के साथ ही हीरालाल शास्त्री को प्रधानमंत्री (मुख्य मंत्री) बनाया गया।
पंचम चरण- ‘संयुक्त वृहत् राजस्थान’: 15 मई, 1949 को ‘वृहत राजस्थान’ ‘और ‘मत्स्य संघ’ का विलय सम्पन्न हुआ और उन्हें मिलाकर ‘संयुक्त वृहत राजस्थान’ का निर्माण किया गया। मत्स्य संघ के विलय से पूर्व इस क्षेत्र की जनता का जनमत जानने के लिये शंकर देव समिति का गठन किया गया इसकी सिफारिश पर ही विलय किया गया।
षष्ठम् चरण- राजस्थान का निर्माण: 26 जनवरी, 1950 को यहाँ की अकेली बची हुई सिरोही रियासत को संयुक्त वृहत राजस्थान में सम्मिलित कर लिया गया। इसी समय भारत एक संप्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया और राज्य को राजस्थान के नाम से उल्लेखित किया गया।
सप्तम् चरण- वर्तमान ‘राजस्थान’ का निर्माण: राज्य एकीकरण के अन्तिम चरण में 1 नवम्बर, 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 लागू हुआ। इसके अन्तर्गत कोटा जिले का सिरोंज मध्य भारत (मध्य प्रदेश) को दिया गया तथा अजमेर-मेरवाड़ा, आबू तहसील एवं मध्य भारत (मध्य प्रदेश) राज्य के मंदसौर जिले की भानपुर तहसील का सुनेल टप्पा वाला भाग राजस्थान में मिला दिया गया। इस प्रकार वर्तमान राजस्थान अस्तित्व में आया। जयपुर को राजस्थान की राजधानी बनाया गया। राजस्थान निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया निम्न तालिका से स्पष्ट हो जाती है-
स्तर-क्रम
प्रथम
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निर्मित संघ
मत्स्य संघ
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बनाने की तिथि
17.3.1948
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सम्मिलित देषी राज्य/रियासतें
अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली
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द्वितीय
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संयक्त राजस्थान
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25.3.1948
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बाँसवाड़ा, बँदी, डूँगरपुर, झालावाड़, किषनगढ़, काटा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, टोंक
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तृतीय
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संयुक्त राजस्थान (I + II)
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18.4.1948
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उपयुक्त+ उदयपुर
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चतुर्थ
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संयक्त राजस्थान (II+III+IV)
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30.3.1949
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उपर्यु क्त + बीकानर, जयपुर,जैसलमेर, जोधपुर
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पचम
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वृहत संयुक्त राजस्थान (I+II+III+IV)
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15.5.1949
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उपर्यु क्त + मत्स्य संघ
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शष्ठ
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वृहत संयुक्त राजस्थान (I+II+III+IV+V)
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26.1.1950
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उपर्य क्त सभी (सिरोही, आबूरोड़ कोछोड़कर)
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सप्तम
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पुनर्गठित राजस्थान
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1.11.1956
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उपर्य क्त सभी + अजमेर, आबरोड़,सुनल टप्पा (सिरोंज मध्य प्रदेष का दिया) अर्थात् वर्तमान राजस्थान
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राज्य की विधायिका
हमारे देश में शासन व्यवस्था के लिये शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को अपनाया गया है जिसे प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानवेत्ता मोन्टेस्क्यू ने दिया था। यह सिद्धान्त बताता है कि कानून निर्माण की शक्ति (विधायिका), उसको लागू करने की शक्ति (कार्यपालिका) तथा कानून व्यवस्था एवं न्याय-निर्णय की शक्तियाँ (न्यायपालिका) अलग-अलग निहित होनी चाहिये। भारत के संविधान के अनुच्छेद 168 में उल्लेखित है कि प्रत्येक राज्य हेतु एक विधानमण्डल अथवा विधायिका होगी। विधायिका से तात्पर्य है जो व्यवस्था को बनाये रखने हेतु विधि निर्माण करती हो। इसे व्यवस्थापिका अथवा विधान मण्डल भी कहते हैं। राजस्थान भारत का एक ऐसा राज्य है, जहाँ एक सदनीय व्यवस्थापिका का प्रावधान है, जिसे ‘विधानसभा’ कहते हैं। राज्य विधानसभा राज्य के लिये संविधान के अनुसार विधि निर्माण करती है। इसके सदस्यों अर्थात् विधायकों का चुनाव राज्य के मतदाता करते हैं। वर्तमान में राजस्थान की विधानसभा में सीटों की कुल संख्या 200 है।
योग्यता- राज्य विधानसभा का सदस्य बनने हेतु कुछ सामान्य योग्यतायें निर्धारित है जो कि निम्नलिखित हैं-
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. वह न्यूनतम आयु 25 वर्ष पूर्ण कर चुका हो।
3. संसद द्वारा विधि से निर्धारित अन्य योग्यताएँ धारण करता हो।
4. वह राज्य अथवा भारत सरकार के अधीन किसी लाभकारी पद को धारण नहीं करता हो।
5. वह सक्षम न्यायालय के द्वारा विकृत मानसिकता का तथा दिवालिया घोषित नहीं हो।
कार्यकाल- साधारणतया 5 वर्ष होता है, जो शपथ ग्रहण से माना जाता है। राज्य में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगा होने पर संसद द्वारा विधि पूर्वक विधान सभा का एक बार में एक वर्ष का कार्यकाल बढ़ाया भी जा सकता है। साथ ही, राज्यपाल के प्रतिवेदन पर राष्ट्रपति संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर समय से पूर्व भी विधानसभा भंग कर सकता है तथा इसके साथ ही राष्ट्रपति शासन प्रभावी हो जाता है।
गणपूर्ति व सत्र- राजस्थान की विधायिका या विधानसभा की गणपूर्ति सदन की कुल सदस्य संख्या का 1/10 भाग से होती है। गणपूर्ति के अभाव में किया गया कार्य असंवैधानिक होता है। संवैधानिक प्रावधान के अनुरूप एक वर्ष में न्यूनतम दो सत्र अवष्य हों तथा दो सत्रों के मध्य 6 माह से अधिक का अन्तर नहीं होना चाहिए। राज्य सरकार वर्तमान में बजट-सत्र, शीतकालीन सत्र, मानसून-सत्र आदि प्रत्येक वर्ष में आहूत करती है।
विधानसभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष- राज्य व्यवस्थापिका या विधान सभा अपना एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष का निर्वाचन करती है। विधानसभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के कार्य लोकसभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष की भांति सदन का नियमपूर्वक संचालन करना, सदस्यों के विषेशाधिकारों की सुरक्षा, अनुशासन एवं शांति रखना, सदस्यों को प्रष्न पूछने, प्रस्ताव तथा विधेयक प्रस्तुती की अनुमति देना, मतदान कराने पर परिणाम की घोशणा आदि कार्य करते हैं। अध्यक्ष को सदस्यों द्वारा 14 दिन पूर्व सूचना देकर विषिष्ट बहुमत से हटाया भी जा सकता है। अध्यक्ष अपना त्यागपत्र उपाध्यक्ष को दे सकता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष कार्य देखता है। विधानसभा की प्रमुख शक्तियाँ एवं कार्य- राज्य की विधानसभा की शक्तियाँ व कार्य भी लोकसभा की तरह है। वह संविधान की राज्य सूची व समवर्ती सूची में निर्धारित विशयों पर विधि निर्माण करती है। राज्य सूची में 66 तथा सम्वर्ती सूची में 47 विशय हैं। राज्य के लिए वित्तीय स्वीकृति का कार्य करती है अर्थात् विधानसभा बजट पारित करती है। कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। आवष्यकता पड़ने पर संविधान संषोधन की स्वीकृति दे सकती है। विधानसभा सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं।
राज्य की कार्यपालिका
हमारे देश में संघ एवं राज्य दोनों स्तरों पर संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। इस प्रणाली में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ सहयोगी संबंध रहते हैं। कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। संविधान के अनुच्छेद 154 के अनुसार हमारे राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ राज्यपाल में निहित है तथा उनका प्रयोग वह भी सामान्यतः राष्ट्रपति की भाँति मंत्रिमण्डल के परामर्षानुसार करता है। राज्य में भी कार्यपालिका दो प्रकार की रखी गई है प्रथम नाममात्र की एवं संवैधानिक प्रमुख के रूप में तथा द्वितीय वास्तविक कार्यपालिका। नाममात्र की कार्यपालिका अर्थात् जिसके नाम से शासन चलता है। अतः राज्यपाल ऐसी ही कार्यपालिका है। जिसके द्वारा शासन संचालित होता है, वास्तविक शक्तियों का प्रयोग होता है, उसे वास्तविक कार्यपालिका कहते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री व मंत्रिपरिषद् ही वास्तविक कार्यपालिका होती है। कार्यपालिका सरकार का द्वितीय अंग है, जो व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधियों के रूप में दिये गये कार्य को लागू करने तथा क्रियान्वित करने का कार्य करती है।
हमारे राज्य में भी संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल पद पर नियुक्ति की जाती है। यद्यपि नियुक्ति सामान्यतः 5 वर्ष हेतु की जाती है, किन्तु राष्ट्रपति उससे पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है। राज्यपाल पद हेतु कुछ योग्यतायें वांछनीय है जैसे वह भारत का नागरिक हो, 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो। सामान्यतः यह ध्यान रखा जाता है कि वह सम्बन्धित राज्य का नागरिक न हो, आदि। राज्यपाल द्वारा संविधान प्रदत्त कई शक्तियों को प्रयोग में लाया जाता है जो कि निम्न हैं-
1. मुख्यमंत्री की नियुक्ति करना तथा उसके परामर्ष पर मंत्रिपरिषद का गठन करना।
2. विधान सभा का सत्र आहूत करना, सत्रावसान की घोशणा, विधान सभा को भंग करना आदि।
3. वित्तीय शक्तियाँ, विधायी शक्तियाँ, क्षमादान की शक्तियाँ आदि।
मुख्यमंत्री एवं मंत्रिपरिषद अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका- देश में जो कार्य प्रधानमंत्री के है लगभग उसी प्रकार की भूमिका तथा स्थान राज्य में मुख्यमंत्री का होता है। संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार राज्यपाल को परामर्ष देने हेतु एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा। राज्यपाल उसके परामर्षानुसार ही कार्य करता है। सामान्यतः मुख्यमंत्री पद हेतु पृथक से योग्यताएं नहीं रखी है, लेकिन राज्यपाल ऐसे व्यक्ति को ही मुख्यमंत्री की शपथ दिलाता है, जो विधानसभा में बहुमत दल का
नेता हो, तथा वह विधान सभा का सदस्य हो, यदि वह विधान सभा का सदस्य नहीं है, तो 6 माह में उसे सदस्यता प्राप्त करनी होती है। यदि स्पष्ट बहुमत प्राप्त दल न हो तो राज्यपाल अपनी स्वविवेकीय शक्ति का प्रयोग करता है। सम्पूर्ण राज्य का शासन, प्रशासन सर्वो च्च रूप में मुख्यमंत्री द्वारा ही चलता है। मुख्यमंत्री अपने दल के कार्यक्रम, नीतियों को जन आकांक्षाओं के अनुरूप लागू करने हेतु कई कार्य करते है। जो निम्न हैं-
1. सर्वप्रथम अपनी मंत्रिपरिषद का गठन करना।
2. मंत्रियों को विभाग बांटना तथा मंत्रिमण्डल की बैठकें बुलाकर अध्यक्षता करना।
3. राज्य प्रशासन एवं व्यवस्था सम्बन्धी मंत्रिपरिषद के निर्णयों से राज्यपाल को अवगत कराना।
4. सभी मंत्रियों, विभागों की देख-रेख करना तथा समन्वय रखकर सरकार की सुदृढ़ एकता रखना।
5. विधान सभा में शासन सम्बन्धी नीतियों, कार्यों की घोशणा कर विधिवत् रूप दिलाना, सदन का तथा सरकार का नेतृत्वकर्ता होना।
6. राज्यपाल द्वारा राज्य के प्रशासन अथवा किसी विधेयक के विशय में कोई सूचना मांगे जाने पर उसे उपलब्ध कराना।
मुख्यमंत्री की उक्त शक्तियों व कार्यों तथा अन्य
कार्यों के क्रियान्वन हेतु मंत्रिमण्डल पूर्ण सहयोग करता है। प्रत्येक विभाग के मंत्रियों के अधीन स्थायी नौकरशाही के रूप में सचिव से लेकर अनेक कर्मचारी रहते है। मंत्रियों को हटाना, विभाग परिवर्तन करना भी मुख्यमंत्री का विशशाधिकार है। वास्तविक कार्यपालिका हान से मुख्यमंत्री विधान सभा को, राज्यपाल को परामर्ष देकर, समय पर्व भंग करा सकता है। दूसरी आर अविष्वास प्रस्ताव स्वीकार कर विधानसभा मुख्यमंत्री को पद से, समय से पर्व अर्थात् 5 वर्ष के कार्यकाल से पर्व भी अपदस्थ कर सकती है। मुख्यमंत्री राज्यपाल तथा मत्रिपरिषद के मध्य कड़ी का कार्य करता है। समय-समय पर राज्यपाल का शासन संबधी निर्णयां से अवगत भी कराता है। वास्तविक कार्यपालिका के रूप में मुख्यमंत्री की वास्तविक स्थिति उसके दल में उसके व्यक्तित्व, सदन में बहुमत की स्थिति, जनता में लोकप्रियता, विपक्षी दलों में स्वीकार्यता पर निर्भर करती है और इन्हीं पर कोई मुख्यमंत्री शक्तिशाली तो कोई निर्बल मुख्यमंत्री के रूप में जाना जाता है।
राज्य प्रशासन
राजस्थान में लाक कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सुदृढ़ प्रशासनिक तंत्र सृजित किया गया है। प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत वर्तमान में राजस्थान को सात संभागा एवं 33 जिलों में विभक्त किया गया है, इसके निचले स्तरां पर उपखण्ड एव तहसीलें है। इस सम्पर्ण व्यवस्था में मुख्यमंत्री के अधीन सर्वोच्च स्तर पर मुख्य सचिव होता है, जा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्टतम अधिकारी में से एक हाता है। मुख्य सचिव की नियुक्ति मुख्यमंत्री द्वारा की जाती है। मुख्य सचिव राज्य के मंत्रिमण्डल के सचिव (कैबिनट सचिव) के रूप में भी कार्य करता है। इनका प्रमुख कार्य मुख्यमंत्री तथा मंत्रीमण्डल का प्रशासनिक विशयों पर उचित परामर्ष देता है।
राजस्थान में राज्य प्रशासन के कार्य संचालित करन हेतु विविध विभाग गठित है तथा प्रत्येक विभाग का प्रभारी मत्री होता है और मंत्री की सहायतार्थ शासन सचिव रहता है। शासन सचिव मत्रियों को नीति निर्माण में आवष्यक सहायता एव सलाह उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार सचिवों की सहायता से निर्धारित नीति का विभिन्न विभाग अपन निदशालय द्वारा लागू करवाते हैं जिसका प्रमुख अधिकारी महानिदशक/निदशक हाता है।
राजस्व एवं कानून व्यवस्था प्रशासन तंत्र
राज्य में राजस्व एव कानन व्यवस्था के लिये एक ही प्रशासनिक तंत्र गठित किया गया है। राजस्व एव कानून व्यवस्था की दृष्टि से राज्य सात संभागों अर्थात् जयपुर, जोधपुर, अजमेर, उदयपुर, कोटा, बीकानेर और भरतपुर में विभक्त किया गया है। राजस्व सम्बन्धी मामलों में राज्य में सर्वो च्च निकाय राजस्व मण्डल जिसका मुख्यालय अजमेर में है। प्रत्येक संभाग पर एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी संभागीय आयुक्त बैठता है। इनके अधीन सभी जिलां के जिलाधीश एव पुलिस अधीक्षक रहते हैं। इनका पुलिस एव सामान्य विभागों में समन्वय रखते हुए सम्पूर्ण संभाग में विकास तथा शाति व्यवस्था बनाये रखने के साथ, संभाग स्तर पर राजस्व सम्बन्धी मामलों का निस्तारण भी करना होता है। जिला स्तर पर कलेक्टर/मजिस्ट्रट का पद सृजित है। जा भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है। इसे पूर जिले की प्रशासनिक व्यवस्था संचालित करनी होती है। इनके अधीन प्रत्येक उपखण्ड पर उपखण्ड अधिकारी नियक्त किये जाते हैं। प्रत्येक तहसील पर एक तहसीलदार होता है, जिसकी मदद के लिये नायब तहसीलदार, कानूनगों आदि होत हैं। तहसील का पटवार सर्किल में विभक्त किया जाता है, जिसका प्रमुख पटवारी हाता है, एक पटवार सर्किल कई ग्रामां से मिलकर बनता है। सम्पर्ण राजस्व एव कानून व्यवस्था तत्र निम्न चार्ट से स्पष्ट है-
राजस्व मण्डल
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राज्य स्तर
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संभागीय आयुक्त
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संभाग स्तर
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जिला कलेक्टर/मजिस्ट्रट
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जिला स्तर
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उपखण्ड अधिकारी
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उपखण्ड स्तर
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तहसीलदार
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तहसील स्तर
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नायब तहसीलदार
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पटवारी
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पटवारी सर्किल
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पुलिस प्रशासन
राज्य में कानून एवं शांति-व्यवस्था बनाये रखने हेतु गृह विभाग का गठन किया गया है। यह विभाग राज्य के गृह मंत्री के अधीन तथा निर्दे शन में कार्य करता है। गृह मंत्री की सहायता हेतु उनके अधीन सचिवालय स्तर पर गृह सचिव होता है। पुलिस प्रशासन के मुखिया का पदनाम वर्तमान में पुलिस महानिदेशक (डी.जी.पी.) है। भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्टतम् अधिकारी को इस पद पर नियुक्त किया जाता है। पुलिस का मुख्यालय जयपुर में है।
सम्पूर्ण राज्य को पुलिस प्रशासन की दृष्टि से आठ रेंज में बांटा गया है। ((अजमेर, बीकानेर, भरतपुर, जयपुर रेंज-प्रथम, जयपुर रेंज-द्वितीय, जोधपुर, कोटा, उदयपुर ) एक रेंज का आकार सामान्यतः एक संभाग के समान ही होता है। प्रत्येक रेंज का प्रमुख अधिकारी पुलिस महानिरीक्षक (आई.जी.) होता है, जो भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी होता है। प्रत्येक रेंज को जिलों मं विभक्त किया गया है। पुलिस प्रशासन के जिलों की संख्या राजस्व एवं सामान्य प्रशासन की दृष्टि से निर्धारित किये गए जिलों से भिन्न होती है। जहाँ राजस्व एवं सामान्य प्रशासन की दृष्टि से राज्य में 33 जिले है, वहीं पुलिस के आन्तरिक प्रशासन की दृष्टि से कुल 38 जिले सृजित किये गए हैं। निम्न तीन जिलों में पुलिस प्रशासन की दृष्टि के अतिरिक्त
जिले सृजित है: जयपुर में चार (पूर्व, उत्तर, दक्षिण, ग्रामीण), कोटा में दो (शहरी, ग्रामीण), जोधपुर में दो (शहर, ग्रामीण)। जिला स्तर पर एक पुलिस अधीक्षक (एस.पी.) होता है, जो सम्पूर्ण जिले की पुलिस को नियंत्रण करता है। जिले में पुलिस का प्रयोग जिलाधीश के निर्दे शानुसार किया जाता है तथा पुलिस का आन्तरिक प्रशासन पुलिस अधीक्षक द्वारा देखा जाता है। जिले को वृत्त (ब्पतबसम) में विभक्त किया जाता है। जहाँ वृत्ताधिकारी (सी.ओ) प्रमुख अधिकारी होता है। जो सामान्यतः राज्यपुलिस सेवा (आर.पी.एस) का अधिकारी होता है। वृत्त को पुलिस थानों में बाँटा जाता है तथा पुलिस थाने के अधीन सबसे छोटी इकाई पुलिस चौकी होती है। थाने का भार सामान्यतः पुलिस निरीक्षक अथवा उपनिरीक्षक के पास होता है। इसके अतिरिक्त हैडकांस्टेबल, कांस्टेबल इत्यादि होते हैं। अन्य विभागों का भी इसी प्रकार उच्च से अधीनस्थ कड़ी जोड़ता हुआ प्रशासनिक ढाँचा रहता है। जैसे षिक्षा, चिकित्सा, कृषि, वाणिज्य, उद्योग, पंचायती राज इत्यादि। समस्त प्रशासनिक विभाग मिल कर राज्य
में विकास के कार्य सम्पन्न करते हैं। सभी विभागों के आपसी सामंजस्य एवं समन्वय से राज्य में जनहित के कार्य सम्पन्न किये जाते है तथा राज्य के विकास को नवीन दिशा प्रदान की जाती है।
स्थानीय स्वशासन निकाय एवं पंचायती राज
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोगों की राजनीतिक सहभागिता एवं स्थानीय विकास हेतु प्रायः सभी देषों में स्थानीय स्तर पर शासन के लिये स्थानीय लोगों का संगठन या निकाय बनाया जाता है और स्थानीय स्तर की विकास योजनायें तथा अन्य समस्याओं तथा जन मांगों को इसी स्थानीय शासन निकाय द्वारा पूरा किया जाता है। भारत में तीन स्तर का शासन अपनाया गया है- केन्द्रीय स्तर, राज्य स्तर तथा स्थानीय स्तर। स्थानीय स्वशासन द्वारा स्थान विषेश के, चाहेवह नगर हो या ग्राम, जनप्रतिनिधियों द्वारा उसी स्थान के विकास कार्य किये जाते है। राज्य में नियामकीय कार्यों (राजस्व एवं कानून व्यवस्था सम्बन्धी) तथा विकास कार्यों को अलग-अलग करने का प्रयास किया गया है। जहाँ एक और जिले में नियामकीय कार्यों का दायित्व जिलाधीश तथा उससे सम्बन्धित तंत्र को सौंपा गया है। वहीं जिले में विकास कार्यों (पानी, सड़क, विद्युत, स्वच्छता इत्यादि) का दायित्व स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को सौंपे जाने का प्रयास किया गया है। विकास कार्यों की दृष्टि से प्रत्येक जिले को ग्रामीण एवं नगरीय दो भागों में विभक्त किया जाता है। स्थानीय स्वशासन निकाय भारत की तरह राजस्थान में भी दो प्रकार के हैं - नगरों के लिये नगरीय शासन तथा ग्रामों के लिये पंचायती राज शासन। भारतीय संविधान में 74वें संविधान संषोधन अधिनियम द्वारा नगरीय स्थानीय शासन को संवैधानिक दर्जा दिया गया है। राज्य में तीन तरह की शहरी संस्थायें हैं - नगर निगम, नगर परिषद तथा नगर पालिका। वर्तमान में राजस्थान में 5 नगरनिगम, 13 नगरपरिषद तथा 170 नगरपालिका मिलाकर कुल 188 नगरीय निकाय हैं।
पंचायती राज- भारत में प्रथम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले में 2 अक्टूबर, 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। राजस्थान में भी इसी के साथ ग्रामीण स्थानीय शासन प्रारंभ हुआ। हमारे राज्य में भी वर्तमान में तीन स्तरीय व्यवस्था प्रचलित है- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत ग्राम , खण्ड स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद। 73वें संविधान संषोधन अधिनियम 1992 द्वारा इन्हें संवैधानिक संस्थाओं का स्तर प्रदान किया गया तथा संविधान में ग्याहरवीं अनुसूची भी जोड़ी गई है। जिसमें पंचायती राज संस्थाओं को 29 विशय दिये गये है। जिन पर ये संस्थायें कार्य करती है। 73वें संविधान संषोधन अधिनियम की प्रमुख
विषेशतायें -
1.संवैधानिक स्तर प्रदान किया गया है- इस अधिनियम से पूर्व तक पंचायतीराज अधिकतर राज्य सरकारों के भरोसे था, लेकिन अब संविधान में स्पष्ट स्थान व स्तर प्राप्त हो गया है। इससे सत्ता परिवर्तन का प्रभाव इन पर नहीं पड़ता है। संविधान में (भाग 9 जोड़ा गया है तथा 16) नये अनुच्छेद जोड़े गए है।
2.आरक्षण व्यवस्था - वर्तमान में पंचायती राज की तीनों स्तर की संस्थाओं में आरक्षण व्यवस्था की गई है।
(क) अनु. जाति और अनु. जनजाति के आरक्षण - इन दोनों वर्गों हेतु प्रत्येक स्तर पर जनसंख्या के अनुपात में राज्य सरकार ने आरक्षण कर रखा है, जो बारी-बारी से आवर्तित (रोटेशन) होता रहता है।
(ख) महिलाओं के लिये आरक्षण - इस अधिनियम क तहत राज्य में महिलाओं हेतु प्रत्येक वर्ग में एक तिहाई स्थान आरक्षित किये गये हैं। ये भी बारी-बारी चक्रानुक्रम पद्धति से आरक्षित होते हैं। वर्तमान में राज्य सरकार ने 2009 में पंचायती राज एवं नगरीय शासन में अब महिलाओं के लिये 50 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये हैं।
(ग) पिछड़े वर्गों हेतु आरक्षण - पंचायती राज में पिछड़े वर्गों हेतु भी राज्य सरकार ने जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण रखा है, जो वर्तमान में 21 प्रतिशत है।
(घ) - पंचायती राज में अब अध्यक्षों के लिये भी उक्त तीनों प्रकार का आरक्षण किया गया है।
3.कार्यकाल - पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल अब 5 वर्ष निष्चित किया गया है। इससे पूर्व किसी कारण से इन संस्थाओं को भंग करना पड़े, तो 6 माह के अंदर ही पुनः चुनाव करवाना अनिवार्य है। इन पंचायती राज संस्थाओं हेतु राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया है।
4. ग्राम सभा का गठन- प्रत्येक ग्राम पंचायत क्षेत्र पर एक ग्राम सभा का गठन होगा। उस ग्राम पंचायत क्षेत्र के समस्त वयस्क मतदाता उसके सदस्य होते है। वर्तमान में राजस्थान में वर्ष में चार बार इसकी बैठकें आहुत की जाती है जब कि दो बार प्रत्येक वर्ष में बैठकें अनिवार्य है।
5.कार्य एवं शक्तियाँ - पंचायती राज संस्थाओं को संविधान की 11वीं अनुसूची में वर्णित 29 विशयों पर निर्णय लेकर कार्य करने की शक्तियाँ प्रदान की है।
6. त्रिस्तरीय व्यवस्था- प्रत्येक जिले में त्रिस्तरीय व्यवस्था की गई है।
(क) ग्राम पंचायत- सभी वार्ड पंचों, उप सरपंच व सरपंच से मिलकर बनती है तथा एक सरकारी कर्मचारी ग्राम सचिव भी रहता है। माह में दो बार इसकी बैठक होती है।
(ख) पंचायत समिति- प्रत्येक विकास खण्ड से निर्वाचित पंचायत समिति सदस्य, उप प्रधान व प्रधान मिलकर खण्ड स्तर की संस्था बनाते है। इनके साथ सरकारी अधिकारी विकास अधिकारी होते है।
(ग) जिला परिषद - पंचायती राज की सर्वो च्च संस्था प्रत्येक जिला स्तर, पर जिला परिषद नाम से गठित है। राज्य में इसमें जिला परिषद सदस्य, उपजिला प्रमुख तथा जिला प्रमुख होते है तथा एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी रहता है। सरपंच को छोड़कर शेष अध्यक्षों, उपाध्यक्षों प्रधान, उपप्रधान, जिला प्रमुख, उप जिला प्रमुख का निर्वाचन सदस्यों द्वारा होता है।
वर्तमान में राजस्थान मे 9184 ग्राम पंचायतें 239 पंचायत समितियाँ तथा 33 जिला परिषदें हैं। जिनके सदस्य व अध्यक्ष पद हेतु 21 वर्ष की आयु का सम्बन्धित क्षेत्र का मतदाता निर्वाचन लड़ सकता है। राजस्थान में पंचायती राज का स्वरूप निम्न चार्ट से स्पष्ट हो जाता है -
संस्था संस्था
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राजनीतिक प्रतिनिधि
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प्रषासनिक अधिकारी
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जिला परिषद
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जिला प्रमुख, उप जिला ,प्रमुख, जिला परिषद सदस्य
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मुख्य कार्यकारी अधिकारी
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पचायत समिति
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प्रधान, उप प्रधान एवं पचायत समिति सदस्य
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विकास अधिकारी
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ग्राम पंचायत
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सरपच, उपसरपच एव पंच
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ग्राम सेवक
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