मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक आंदोलन औरविभिन्न लोक धर्म-संस्कृतियाँ
मध्यकालीन राजस्थान में धार्मिक आंदोलन औरविभिन्न लोक धर्म-संस्कृतियाँ
राजस्थान में धार्मिक परम्परा और लोक विश्वास की धारा प्राचीन काल से ही लगातार जारी है। वैदिक धर्म और उससे संबंधी विश्वासों के प्रतीक राजस्थान में आज भी दख जाते हैं। दूसरी शताब्दी ईसा पर्व के घौसुण्डी शिलालेख में अवश्मेध यज्ञ का उल्लेख है। तीसरी सदी में नान्दसा यूप स्तम्भ तथा कोटा, जयपुर के कुछ यूप स्तंभों से यज्ञों के प्रचलन का बाध होता है। सवाई जयसिंह ने अश्वमेध तथा अन्य यज्ञां के सम्पादन द्वारा अपन समय तक यज्ञां की वैदिक परम्परा का जीवित रखा। राजस्थान में 12वी शताब्दी तक मुख्य दव के रूप में ब्रह्मा एवं सूर्य का अर्चन प्रचलित था। अनेक स्त्रोतां से विदित हाता है कि राजस्थान में शैव धर्म का अनेक राजवंशों पर प्रभाव था, जिनमें मेवाड़ और मारवाड़ रियासत प्रमुख है। लकुलीश और नाथ सम्प्रदाय के आचार्यां ने अपने चमत्कार के प्रभाव से मेवाड़ और मारवाड़ राजपरिवार पर क्रमशः प्रभाव स्थपित करन में सफलता प्राप्त की, जिसके परिणामस्वरूप मेवाड़ के महाराणा श्रीएकलिगजी का ही अपन राज्य का स्वामी और स्वयं का उनका दीवान मानत थ। वहीं मारवाड़ के मानसिंह के समय नाथों का शासन कार्य में बड़ा हाथ रहा। मानसिंह ने जाधपुर में नाथों की प्रसिद्ध पीठ ‘महामंदिर’ का निर्माण करवाया था।
मध्यकालीन राजस्थान में अनेक रूपां में शक्ति की उपासना प्रचलित थी, जिसके प्रमाण आसियाँ का सच्चिया माता मंदिर, चित्तौड़ का कालिका मंदिर के रूप में दख जो सकत हैं। राजस्थान के अनेक राजवंशों ने ता शक्ति पर विश्वास कर उसे कुलदेवी के रूप में स्वीकार कर लिया था। बीकानर राजपरिवार करणीमाता, जो धपुर नागणेची माता, सिसोदिया नरेश बाणमाता, कछवाहा राजवंश अन्नपर्णा माता के आज भी परम भक्त हैं। राजस्थान में वैष्णव धर्म का सर्वप्रथम उल्लेख द्वितीय शताब्दी ई. प. के घौसुण्डी के लेख में मिलता है। राजस्थान में वैश्णव धर्म के प्रमाण के रूप में महाराणा कुम्भा के समय में खड़िया गाँव में कृष्ण मन्दिर, चित्तौड़ तथा कुंभलगढ में कुंभश्याम मन्दिर, उदयपुर में जगदीश मन्दिर, नाथद्वारा का श्रीनाथजी मन्दिर, जो धपुर का घनश्यामजी मंदिर उल्लेखनीय है। नारी संत के रूप में मीरां अपन समय की कृष्ण भक्ति की अनुपम उदाहरण है। बीकानर के पृथ्वीराज तथा जाधपुर के विजयसिंह और किशनगढ़ के नागरीदास अपने समय के कृष्ण भक्तां में प्रमुख स्थान रखते हैं। कृष्णभक्ति के साथ राम भक्ति भी राजस्थान में सम्मानित पद प्राप्त किये हुये थी। कछवाहा शासक स्वयं का ‘रघुवशतिलक’ कहते थ।
राजस्थान में जैन धर्म वैश्यां में अधिक प्रचलित रहा है। हालाकि यहाँ के शासक जैन अनुयायी नही रहं, परन्तु उन्होंन इस धर्म का सहिष्णुता दृष्टि से दखा। जैसलमेर, नाडौल, आमेर, धुलेव, रणकपुर, आब, सिरोही आदि स्थानों पर जैन तीर्थंकरों की मर्तियाँ एवं जैन धर्म की प्रभावना से सम्बन्धित अनक शिलालेख उपलब्ध हैं, जो जैन धर्म की राजस्थान में होन वाली प्रगति पर प्रकाश
डालते हैं। राजस्थान को जैन धर्म की सबसे बड़ी देन यह है कि इस धर्म के अनेक विद्वानां ने सहस्त्रों की संख्या में हस्तलिखित गं ्रथां का लिखा, जिनमें निहित ज्ञान हमार लिए आज भी एक बड़ी निधि है।
इस्लाम धर्म राजस्थान में बारहवी शताब्दी में अधिक प्रगतिशील बना। प्रसिद्ध सूफी सन्त ख्वाजा मुइनुद्दीन हसन चिश्ती, मुहम्मद गौरी के आक्रमणां के दौरान पृथ्वीराज चौहान तृतीय के शासनकाल में भारत आये थे। इन्होंने अजमेर को अपना केन्द्र बनाया था, जहाँ से इसका जालौर, नागौर, माण्डल, चित्तौड़ आदि स्थानों पर प्रसार हुआ। नागौर में प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुद्दीन नागौरी की दरगाह है, जो अजमेर के बाद राजस्थान में इस्लाम के प्रमुख केन्द्र के रूप में विख्यात है। सूफी संतों ने अपने चारित्रिक बल से मध्ययुगीन धार्मिक आक्राश का कम करने में सफलता पायी। इतना ही नही राजस्थान के अनक शासकां द्वारा मस्जिदों का अनुदान दिये जान के उल्लेख मिलत हैं। अजमेर की दरगाह शरीफ को अजीतसिंह और जगतसिंह द्वारा गाँवों का भेट के रूप में दिये जाने के वर्णन मिलत ह ै, जिसके परिणामस्वरूप राजस्थान में 18वी शताब्दी तक हिन्द-मुस्लिम वैमनस्य का विशेष रूप नजर नहीं आया। राजस्थान के लोकमानस में लोक दवों के रूप में
एक नयी प्रवृत्ति दिखाई दती है। यहाँ जिन लागां ने त्याग और आत्म बलिदान से अपने दश की सेवा की अथवा नैतिक जीवन बिताया, उनको दवत्व (लाकदवता) का स्थान दकर पजा जान लगा। ऐसे लोकप्रिय दवां में गोगाजी, पाबूजी, तेजाजी, देवजी, मल्लिनाथ जी प्रमुख स्थान रखते हैं। इन्होंने अपन आत्मोत्सर्ग के द्वारा तथा सादा और सदाचारी जीवन बितान के कारण अमरत्व प्राप्त किया। लाखों की संख्या में ग्रामीण आज भी तजाजी का चिह्न गले में पहनत हैं। इन विविध लोक देवां की उपासना वैसे तो अन्ध-विश्वास पर आधारित रही है और बुद्धिजीवियों की इन पर कोई श्रृद्धा नहीं रही, फिर भी इनके प्रति दृढ़-निष्ठा ने लाक मानस का सद्मार्ग पर चलने के लिए निश्चय ही प्रेरित किया है।
राजस्थान के जाट परिवार में जन्में धन्ना के विचारां में रहस्यवाद और रूढ़िवाद का समन्वय दखा जो सकता हैं। ये बनारस में जाकर रामानन्द के शिष्य बन गये। इनका मानना था कि प्रेम और मनन से ईश्वर की प्राप्ति सुलभ है। पीपासर में जन्मे जाम्भोजी पँवारवशीय राजपूत थे। ये साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के विरोधी थे। इन्हांने समाज सुधारक की भाँति विधवा विवाह पर बल दिया। इनके सभी सिद्धान्त ‘29 शिक्षा’ के नाम से जान जात हैं और इनका पालन करने वाले ‘विश्नोई’ नाम से सम्बोधित किये जात हैं। इनमें अधिकांश जाट हैं। विश्नाई सम्प्रदाय के कई अनुयायियों ने जीव कल्याण और पर्यावरण रक्षार्थ अपने प्राण-न्योछावर किये। बनारस में पैदा हुये रैदास चित्तौड़ आये थे तथा इनकी एक छतरी चित्तौड़गढ़ में बनी हुई है। रैदास और कबीर के सिद्धान्तां में बहुत कुछ समानता दिखाई दती है। रैदास की वाणियों का ‘रैदास की परची’ कहत हैं।
मीरां नारी सन्तों में ईश्वर प्राप्ति में लगी रहन वाली भक्तां में प्रमुख है। यह रत्नसिंह की इकलौती पुत्री थी तथा इसका जन्म कुड़की में लगभग 1498-1499 में हुआ था। मीरा का विवाह मेवाड़ के सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था परन्तु भोजराज की शीघ्र ही मृत्यु हा जाने से मीरां पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। मीरां के स्वतन्त्र विचार और सन्त संगति मेवाड़ राजपरिवार के लिए असह्य थे। मीरां के जीवन से कुछ कथानक जुडे़ हुये है जैसे, जहर पीने के लिए विवश करना, सांप से कटवाना, उसके चरित्र पर राजा द्वारा सन्देह करना इत्यादि, परन्तु कृष्णभक्ति में लगी मीरां के लिए शारीरिक यातनाएँ, वैधव्य जीवन इत्यादि कोई महत्त्व नहीं रखते थ। मीरां कहती थी ‘मारा ता गिरिधर गापाल दूजा ने कोई।’ मीरा की दृष्टि में समृद्धि, वैभव, संसार के सुख, उच्च पद और सम्मान मिथ्या है। यदि कोई सत्य है तो उसके ‘गिरिधर गोपाल।’ मीरा की भक्ति की विशेषता यह थी कि उसमें ज्ञान पर जितना बल नहीं था उतना भावना एवं अनुभूति पर था। ऐसा प्रचलित है कि मीरां वृन्दावन में रहत हुए अथवा द्वारिका में रहत हुए 1540 के लगभग नृत्य करन-करत रणछोड़ जी की मूर्ति में लीन हो गयीं।
दादू पथ के प्रवर्तक दादू धर्म संबंधी स्वतन्त्र विचारकों में प्रमुख सन्त हैं। उनकी मृत्यु 1605 में नारायणा (जयपुर) में हुई थी। नारायणा की गद्दी दाद पथ की प्रधान पीठ मानी जाती है। इनके 52 शिष्य बावन स्तंभ कहलात हैं, जिनमें सुन्दरदास, रज्जबजी प्रमुख हैं। दादू आमेर के कछवाहा शासक मानसिंह के समकालीन थ। कबीर की भाँति दादू रूढ़ियों, विविध पजा पद्धतियां के विरुद्ध थ। वे कहा करते थे कि ईश्वर एक है, जिसके दरबार में हिन्दू-मुसलमानों का कोई भेदभाव नहीं है। दादू की उपासना निरंजन और निर्गु ण ब्रह्म की प्राधान्यता का लेकर है। दादू
की सबसे बड़ी विशषता है, प्रचार में स्थानीय भाषा का प्रयाग। उन्हांने ढूँढाड़ी भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में गुजराती, पश्चिमी हिन्दी तथा पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी दिखाई देता है। इसी कारण हिन्दी सन्त साहित्य में दादू की ‘वाणी’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कबीर और दादू के विचारां में सुधारवादी भावना के रूप में समानता मिलती है। इसके विपरीत कबीर के कहन में उग्रता झलकती है ता दादू में विनम्रता। दादू द्वारा प्रतिपादित पथ में प्रेम एक ऐसा धागा है जिसमें गरीब व अमीर बाध जो सकते है तथा जिसकी एकसूत्रता विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर
सकती है।
लालदासी सम्प्रदाय के संस्थापक संत लालदास का जन्म धोलीदूब गाँव (जिला अलवर) में हुआ था। इन्हांन हिन्द-मुस्लिम दोनों धर्मो की अच्छाइयों को अपनाकर लागां का उपदश दिये तथा साम्प्रदायिक समन्वय का उदाहरण प्रस्तुत किया। मेव मुसलमान इनका पीर मानत हैं। ये निर्गुण ब्रह्म के उपासक तथा समाज सुधारक थे। इनका निधन नगला में हुआ। कामड़िया पथ के संस्थापक रामदेवजी का जन्म उडूकासमेर (बाड़मेर) में हुआ था। इन्होंन समाज में छूआछूत और ऊँच-नीच के भदभाव का विरोध रख हिन्दू-मुस्लिम समन्वयता के लिए प्रयास किया। इनका समाधि स्थल रामदेवरा (रूणेचा) में है, जो जैसलमेर जिले में स्थित है। इनकी स्मृतियों में आयोजित रामदेवरा मेले में हजारों लोग प्रतिवर्ष आते हैं। इस मेले की मुख्य विशेषता साम्प्रदायिक
सद्भावना है। इस मेले में कामड़िया पथ के लोगां द्वारा तरहताली नृत्य किया जाता है। रामदेवजी का हिन्दू ‘विष्णु का अवतार’ मुस्लिम ‘रामशाह पीर’ और ‘पीरों के पीर’ मानते हैं।
जसनाथी सम्प्रदाय के संस्थापक जसनाथजी का जन्म कतरियासर (बीकानर) में हुआ था। इस सम्प्रदाय में रात्रि जागरण, अग्नि नृत्य इत्यादि प्रचलित है। संत पीपा खींची राजपत थ। इनकी छतरी गागरान (झालावाड़) में है। श्रीकृष्ण के निष्कलकी अवतार के रूप में प्रतिष्ठित सन्त मावजी का जन्म मावला (डूँगरपुर) में हुआ था। इन्होंने बेणश्वर धाम की स्थापना साम-माही-जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर की। वर्तमान टोंक जिले के सोडा ग्राम में विजयवर्गीय वैश्य परिवार में जन्मे सन्त रामचरण ने 18वीं सदी के राजनीतिक और धार्मिक ह्वास के काल में जन्म लेकर इस समय की क्षतिपूर्ति की। इन्होंने अपने विचारों को मूर्त्त रूप देने के लिए ‘अणभैवाणी’ की रचना की तथा ‘रामस्नही सम्प्रदाय’ का प्रचलन किया, जिसकी प्रधान पीठ ‘शाहपुरा’ (भीलवाड़ा) में है। उन्होंने अपने अनुयायियों को ‘राम’ नाम का मन्त्र देकर मानवता का सन्देश दूर-दूर तक फैलाया। ये निर्गु ण उपासक थे। अतः रामस्नेही मत को मानने वाले मूर्ति पूजा नहीं करते। इस पंथ में नैतिक आचरण, गुरु महिमा, सत्यनिष्ठा, धार्मिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। इस प्रकार मध्यकालीन धार्मिक आन्दालन और लोक विश्वासों ने राजस्थानी समाज में न्यूनाधिक नवजागरण की अलख जगाई। इस काल की धार्मिक सांस्कृतिक गतिविधियाँ ने सभी हिन्दू और दलित जाति का एक वर्ग मानकर, पथां की सीमाएँ बनायी, जिससे विधर्मी हाने के अवसर कम हो गये और भारतीय जनता एक सूत्र में बधी रह गई। यहाँ तक कि कई पथों ने ता हिन्दू-मुसलमानों के भदभाव का अस्वीकृत कर चेतना के स्वर का नव आयाम प्रदान किया। कुल मिलाकर यह युग ने केवल राजस्थान की संस्कृति का उज्ज्वल युग है अपितु सांझी संस्कृति का परिचायक भी है, जो भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
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